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छठा अध्ययन : आर्द्रकीय
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धर्म की निन्दा और हिंसाप्रधान धर्म की प्रशंसा करने वाला जो राजा ( एगंपि असीलं भोई) एक भी शीलरहित ब्राह्मण को भोजन कराता है, (णिसं जाइ सुरेहिं कुओ ) वह अन्धकार युक्त नरक में जाता है, फिर देवों (देवलोकों) में जाने की तो बात ही क्या है ? ||४५||
व्याख्या
कुशील ब्राह्मण भोजन का फल शंका-समाधान
४३वीं गाथा से लेकर ४५वीं गाथा तक आर्द्रक मुनि और ब्राह्मणगण के संवाद का वर्णन है | आर्द्रक मुनि जब बौद्धभिक्षुओं को निरुत्तर करके आगे बढ़ने लगे तभी कुछ ब्राह्मणगण आए और वे कहने लगे - आर्द्रक मुने ! आपने गोशालक मत का एवं बौद्धमत का प्रतिवाद करके बहुत अच्छा किया, क्योंकि ये दोनों ही मत वेदा हैं । इसी तरह आर्हतमत भी वेदबाह्य है, इसे भी छोड़ दो। आप क्षत्रियों में श्र ेष्ठ । इसलिए वर्णों में श्र ेष्ठ ब्राह्मणों की सेवा करना ही आपका धर्म है, शूद्रों की सेवा करना नहीं । आप तो यज्ञ-याग का अनुष्ठान करें और ब्राह्मणों की सेवा करें । ब्राह्मण-सेवा का माहात्म्य हम आपको बतलाते हैं - वेदपाठी, षट्कर्मपरायण, शौचाचारपालक एवं सदा स्नान करने वाले दो हजार स्नातक ब्रह्मचारी ब्राह्मणों को जो व्यक्ति प्रतिदिन भोजन कराता है, वह महान् पुण्यपुरंज का उपार्जन करके स्वर्गलोक में देवता बनता है ।
आर्द्र मुनि ब्राह्मणों के लच्छेदार वचनों को सुनकर उनकी उक्त मान्यता का प्रतिवाद करते हुए कहते हैं - हे ब्राह्मणो ! हमारी यह मान्यता है और वह सिद्धान्त से समर्थित है कि जो मनुष्य वैडालिकवृत्ति वाले दो हजार स्नातक ब्राह्मणों को प्रतिदिन भोजन कराता है, वह कुपात्र को दान देने वाला है, क्योंकि जैसे बिल्ली मांस की खोज में घर-घर घूमती रहती है, वैसे ही ये वैडालिकवृत्ति वाले ब्राह्मण मांस आदि भोजन की प्राप्ति के लिए क्षत्रिय आदि के कुलों में घूमते रहते हैं । इसी - लिए इनका नाम 'कुलालय' पड़ा है, कुलालय का अर्थ होता है - मांसादि भोजन के लिए जो क्षत्रिय आदि के कुलों - घरों में पड़े रहते हैं । अतः दूसरों की कमाई पर गुलछर्रे उड़ाने वाले, निन्दनीय जीविका वाले ऐसे ब्राह्मण कुपात्र हैं, वे शीलरहित होते हैं । ऐसे ब्राह्मणों को भोजन कराना कुपात्रदान देना है । अतः ऐसे ब्राह्मणों को भोजन कराने वाला व्यक्ति मांसभक्षी वज्रचंचु पक्षियों से परिपूर्ण तथा भयंकर वेदना से युक्त नरक में जाता है । सचमुच दयाप्रधान धर्म की निन्दा और हिंसाप्रधान धर्म की प्रशंसा करने वाला विवेकमूढ़ शासक हजार तो क्या एक भी व्रतरहित, शीलहीन ब्राह्मण को षट्कायिक जीवों का उपमर्दन करके भोजन कराता है, वह घोर अन्धकार से भरे हुए नरक में जाता है । वह मूढ़ व्यर्थ ही अपने आपको धर्मात्मा मानता है । वह मरकर अधम देव भी नहीं होता, फिर उत्तम देव होने की बात ही क्या है ? ऐसे
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