Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 459
________________ ४१८ सूत्रकृतांग सूत्र सिक्खावित्तए ?) क्या वे ऐसे विचार वाले पुरुष शिक्षा देने योग्य हैं ? (हता कप्पति) हाँ, अवश्य शिक्षा देने योग्य हैं । (किं ते तहप्पगारा कप्पंति उवट्ठावित्तए ?) क्या वे ऐसे विचार वाले पुरुष साधुत्व में स्थापित करने योग्य हैं ? (हंता कप्पति) हाँ, वे इस योग्य हैं । (तेसि च तहप्पगाराणं सवपार्णोह सव्वसत्तेहि दंडे णिक्खित्ते ?) तो क्या दीक्षा लेकर उन लोगों ने समस्त प्राणियों यावत् सब सत्त्वों को दण्ड देना (हिंसा करना) छोड़ दिया ? (हंता णिक्खित्त) हाँ, छोड़ दिया । (से णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा जाव वासाइं चउपंचमाइं छट्टसमाई वा अप्पयरो वा भुज्जयरो वा देसं दूइज्जेत्ता अगारं वएज्जा ?) अब वे प्रव्रज्या की अवस्था में स्थित होकर चार, पाँच, छह या दस वर्ष तक थोड़े या बहुत-से देशों में विचरण करके क्या पुनः गृहस्थवास में जा सकते हैं ? (हंता वएज्जा) हाँ, जा सकते हैं । (तस्स णं सवपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं दंडे णिक्खित्त ?) क्या वे भूतपूर्व अनगार गृहस्थ बन जाने पर समस्त प्राणियों यावत् सम्पूर्ण सत्त्वों को दण्ड देना (घात करना) छोड़ देते हैं ? (णो इण? समठ्ठ) निर्ग्रन्थों ने कहा कि ऐसा नहीं होता अर्थात् वे फिर गृहस्थ होकर समस्त प्राणियों को दण्ड देना नहीं छोड़ते, किन्तु दण्ड देना आरम्भ कर देते हैं। (से जे से जीवे जस्स परेणं सव्वपाहिं जाव सव्वसत्तहि दंडे णो णिक्खित्त) यह जीव वही है, जिसने दीक्षाग्रहण के पूर्व यानी गृहस्थवास में समस्त प्राणियों और सत्त्वों को दण्ड देने का त्याग नहीं किया था । (से जे से जीवे जस्स आरेणं सवपाणेहिं जाव सोहि दंडे णिक्खित्ते) यह जीव वही है, जिसने दीक्षा धारण करने के पश्चात् समस्त प्राणियों और सत्त्वों को दण्ड देने का त्याग किया था । (से जे से जीवे जस्स इयाणि सव्वपाणेहि जाव सव्वसत्तहि दंडे णो णिक्खित्त भवइ) एवं यह जीव वही है, जो इस समय पुनः गृहस्थवास अंगीकार करके समस्त प्राणियों और सब सत्त्वों को दण्ड देने का त्यागी नहीं है। (परेणं असंजए आरेणं संजए इयाणि असंजए) वह पहले तो असंयमी था, बाद में संयमी हुआ और अब यह पुनः असंयमी हो गया है । (असंजयस्स णं सव्वपाहिं जाव सव्वसतोहि दंडे णो णिक्खित्त भवइ) असंयमी जीव समस्त जीवों और समस्त सत्त्वों को दण्ड देने (हिंसा) का त्यागी नहीं होता । अतः वह पुरुष इस समय समस्त प्राणियों और सर्वसत्त्वों को दण्ड देने का त्यागी नहीं होता । (एवमायाणह णियंठा ! से एवमायाणियव्वं) निर्ग्रन्थो ! इसी प्रकार समझो और इसी तरह समझना चाहिए । (भगवं च णं उदाह) भगवान् श्री गौतम स्वामी ने आगे कहा-(नियंठा खलु पुच्छियव्वा) मुझे निर्ग्रन्थों से पूछना है, (आउसंतो नियंठा) हे आयुष्मन् निर्ग्रन्थो ! (इह खलु परिव्वाइया वा परिवाइआओ वा अन्न यरेहितो तित्थाययहितो आगम्म धम्म सवणवत्तियं उवसंकमज्जा ?) इस लोक में परिव्राजक या परिव्राजिकाएँ किसी: दूसरे तीर्थायतन (तीर्थस्थल में रहकर धर्म सुनने के लिए क्या साधु के पास आ सकती. हैं ? (हंता उवसंकमज्जा) निर्ग्रन्थों ने कहा-हाँ, आ सकती हैं। (तेसि तहप्पगारेणं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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