Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 464
________________ सप्तम अध्ययन : नालन्दीय ४२३ निर्ग्रन्थ-हाँ, ऐसा सम्भव है । अशुभ कर्मोदयवश उनका पुनः गृहस्थ बनना सम्भव है। गौतम स्वामी-साधु का वेष छोड़कर गृहस्थ पर्याय में आए हुए व्यक्ति के साथ क्या साधुओं का सांभोगिक व्यवहार अब रह सकता है ? निर्ग्रन्थ-जी नहीं, अब उनका सांभोगिक व्यवहार साधुओं के साथ नहीं रहता, न रखना चाहिए । ___ गौतम स्वामी-निर्ग्रन्थो ! ये वे ही जीव हैं जो दीक्षाग्रहण से पूर्व संभोगयोग्य नहीं थे, किन्तु दीक्षा लेने के बाद संभोगयोग्य बन गए थे, लेकिन अब दीक्षात्याग के बाद वे संभोगयोग्य नहीं रहे । ये जीव तो वे ही हैं, जो पहले श्रमण नहीं थे, फिर श्रमण हो गए थे, अब श्रमण नहीं रहे । श्रमणों को अश्रमणों के साथ सांभोगिक व्यवहार उचित एवं कल्पनीय नहीं होता, क्योंकि उनका आचार श्रमणों जैसा नहीं रहा। अतएव निर्ग्रन्थो ! आप इस बात को समझ लीजिए और ऐसा समझकर आपको इसे हृदयंगम कर लेना चाहिए। निष्कर्ष यह है कि प्रत्याख्यान का सम्बन्ध पर्याय के साथ होता है, द्रव्यरूप जीव के साथ नहीं । केवल श्रावकों के लिए ही नहीं, साधुओं के लिए भी यही बात है । जैसे कोई परिव्राजक धर्मश्रवण करके सम्यग् मुनिदीक्षा ले लेता है, तब उसके साथ मुनिवर सांभोगिक व्यवहार रखते हैं, किन्तु वही जब दीक्षा छोड़कर गृहस्थ हो जाता है तो उसके साथ मुनि किसी प्रकार का सांभोगिक व्यवहार नहीं रखते, क्योंकि दीक्षा छोड़ देने के बाद उनकी पर्याय बदल जाती है । जीव तो उसका वही है, जो दीक्षा लेने के पूर्व या दीक्षित अवस्था में था, मगर दीक्षा छोड़ने के पश्चात् अब वह दीक्षित अवस्था (पर्याय) नहीं है, इसलिए साधु उसके साथ सांभोगिक व्यवहार नहीं रखते । इसी प्रकार जिस श्रमणोपासक ने त्रस जीव की हिंसा का त्याग किया है, उसके लिए त्रस जीव हिंसा का विषय नहीं रहता । किन्तु वही जीव जब त्रस पर्याय को छोड़कर स्थावर पर्याय में आ जाता है, तब वह उसके प्रत्याख्यान का विषय नहीं रहता । इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि प्रत्याख्यान पर्याय की अपेक्षा से होता है, द्रव्य की अपेक्षा से नहीं। इस प्रकार गौतम स्वामी ने उदक आदि निर्ग्रन्थों का प्रत्याख्यानविषयक समाधान करके उनकी उलझी हुई गुत्थी सुलझाई। मूल पाठ भगवं च णं उदाहु-संतेगइया समणोवासगा भवंति, तेसि च णं एवं वृत्तपुव्वं भवइ-'णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए । वयं च णं चाउद्दसट्ठमुद्दिट्ठ पुणिमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेमाणा विहरिस्सामो, थूलगं पाणाइवायं पच्चक्खा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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