Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 447
________________ ४०६ सूत्रकृतांग सूत्र समझते हैं, और त्रस प्राणी त्रस कहना आप ठीक (शुद्ध) नहीं समझते ? जबकि दोनों समानार्थक हैं । (ततो आउसो एक्कं पडिक्कोसह एक अभिणंदह) ऐसा करके आप क्यों एक (पक्ष) की निन्दा करते हैं और एक पक्ष की प्रशंसा करते हैं ? (अयंपि भेदो से णो णेयाउए भवइ) अत: आपका यह पूर्वोक्त भेद (पक्षपात) भी न्यायसंगत नहीं है। (भगवं च णं उदाह) फिर उदकपेढालपुत्र से भगवान् श्री गौतम स्वामी ने कहा-(संतेगइया मणुस्सा भवंति, तेसिं च णं एवं वृत्तपुव्वं भवइ) हे उदक ! इस जगत् मे ऐसे भी मनुष्य होते हैं, जो साधु के निकट आकर उनसे इस प्रकार कहते हैं -(वयं मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए णो खलु संचाएमो) हम मुडित होकर अर्थात् समस्त प्राणियों को न मारने की प्रतिज्ञा लेकर गृह त्याग करके आगार धर्म से अनगार धर्म में प्रबजित होने (दीक्षा लेने) में अभी समर्थ नहीं है, (सावयं ण्हं आणुपुग्वेणं गुत्तस्स लिसिस्सामो) किन्तु हम क्रमशः साधुत्व को स्वीकार करेंगे अर्थात् हम प्रथम स्थूल प्राणातिपात (स्थूल प्राणियों की हिंसा) को छोड़ेंगे, इसके पश्चात् सूक्ष्म प्राणातिपात (सर्वसावद्य) का त्याग करेंगे। (ते एवं संखवेति ते एवं संखं ठावयंति) तदनुसार वे अपने मन में ऐसा ही निश्चय करते हैं, और ऐसा ही विचार प्रगट करते हैं (नन्नत्थ अभिओएण गाहावइचोरग्गहणविमोक्खणयाए तसेहिं पाणेहि दंडं निहाय) तदनन्तर वे राजा आदि के अभियोग का आगार (छूट) रखकर गृहपतिचोरग्रहणविमोक्षणन्याय से त्रस प्राणियों की हिंसा का त्याग करते हैं और साधुगण यह जानकर कि यह व्यक्ति समस्त सावधों को नहीं छोड़ता है तो जितना छोड़े उतना ही अच्छा है, उसे त्रस प्राणियों की हिंसा न करने की प्रतिज्ञा कराते हैं। (तं पि तेसि कुसलमेव भवइ) इतना त्याग भी उसके लिए अच्छा ही होता है । सू० ७५ ॥ (तसा वि तससंभारकडेणं कम्मुणा तसा वुच्चंति) त्रस जीव भी त्रसनामकर्म के उदय अर्थात् त्रसनामकर्म का फल भोगने के कारण त्रस कहलाते हैं । (णामं च णं अब्भुवयं भवइ) और वे उक्त कर्म का फल भोगने के कारण ही त्रस नाम को धारण करते हैं (तसाउयं च णं पलिक्खीणं भवइ) और उनकी त्रस की आयु क्षीण हो जाती है (तसकायद्विइया ते तओ आउयं विप्पजह ति) और त्रसकाय में स्थिति रूप (रहने का हेतु रूप) कर्म भी क्षीण हो जाता है, तब वे उस आयुष्य को छोड़ देते हैं। (ते तओ आउयं विप्पजहित्ता थावरत्ता पच्चायंति) और वे त्रस का आयुष्क छोड़कर स्थावरत्व को प्राप्त करते हैं, (थावरा वि वुच्चंति थावरा थावरसंभारकडेण कम्मुणा णाम च णं अब्भुवगयं भवइ) स्थावर प्राणी भी स्थावर नामक कर्म के फल का अनुभव करते हुए स्थावर कहलाते हैं, और इसी कारण वे स्थावर नाम को भी धारण करते हैं। (थावराउयं च पल्लिक्खीणं भवइ थावरकायट्ठिइया ते तओ आउयं विप्पजहंति) जब उनकी स्थावर की आयु क्षीण हो जाती है और स्थावरकाय में उनकी स्थिति की अवधि पूरी हो जाती है, तब वे उस आयु को छोड़ देते हैं। (तओ आउयं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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