________________
सप्तम अध्ययन : नालन्दीय
४०६
सारांश ७५वें और ७६वें सूत्र में पूर्वोक्त प्रत्याख्यान के सम्बन्ध में रोचक उदक-गौतम प्रश्नोत्तर प्रस्तुत किये गये हैं। उदक निर्ग्रन्थ से गौतम स्वामी से पूछा कि आप त्रस प्राणी को बस कहते हैं या अन्य किसी प्राणी को ? इसके उत्तर में गौतम स्वामी ने स्पष्ट उत्तर दिया कि जिनको आप त्रसभूत कहते हैं, उन्हीं को हम बस कहते हैं। दोनों शब्द एकार्थक हैं। अत: भूत शब्द लगाकर विभेद या बुद्धिभेद पैदा करना ठीक नहीं। बहुत-से मनुष्य साधुवत्ति ग्रहण करने में समर्थ नहीं होते, वे यदि गृहस्थ श्रावक के अहिंसाणव्रत का ग्रहण करके त्रसजीवों की हिंसा का ही साधुओं के त्याग ग्रहण करते
हैं तोलिकूल त्याग न करने की अपेक्षा, थोड़ा सा हिसा का त्याग भी अच्छा ही है । उदक ने पहले जो आक्षेप किया था कि जिसने त्रसजीवों की हिंसा का त्याग किया था, उसका व्रत-भंग होता है, जबकि त्रसजीव मरकर स्थावब हो जाते हैं, या भविष्य में, जो स्थावर होंगे। इसके उत्तर में गौतम का स्पष्ट उत्तर यह है जो वर्तमान में त्रस पर्याय में हैं, वे चाहे स्थावर में से आये हों, वर्तमान में बस पर्याय में होंगे तो उन्हीं की हिंसा का त्याग श्रावक करेगा। जो वस से स्थावर हो गये हैं, उनकी तो पर्याय ही बदल गई है। उनकी घात से श्रावक का व्रतभंग नहीं होता।
मूल पाठ सवायं उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एवं वयासी--आउसंतो गोयमा ! णत्थि णं से केइ परियाए जण्णं समणोवासगस्स एग पाणाइवायविरए वि दंडे निक्खित्ते । कस्य णं तं हेउं ? संसारिया खलु पाणा, थावरा वि पाणा तसत्ताए पच्चायंति, तसा वि पाणा थावरत्ताए पच्चायंति, थावरकायाओ विप्पमुच्चमाणा सव्वे तसकायंसि उववज्जति, तसकायाओ विप्पमुच्चमाणा सव्वे थावरकायंसि उववति । तेसि च णं थावरकायंसि उववन्नाणं ठाणमेयं घतं।
सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी--णो खलु आउसो उदगा ! अस्माकं वत्तव्वएणं तुब्भं चेव अणुप्पवादेणं, अत्थि णं से परियाए जेणं समणोवासगस्स सव्वपाणेह सव्वभूएहि सव्वजोवेहि सव्वसत्तेहिं दंडे निक्खित्ते भवइ, कस्स णं तं हेउं ? संसारिया खलु घाणा तसा वि पाणा थावरत्ताए पच्चायंति, थावरा वि पाणा तसत्ताए पच्चायंति, तसकायाओ विप्पमुच्चमाणा सव्वे थावरकायंसि उववज्जंति, थावरकायाओ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org