Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 414
________________ छठा अध्ययन : आर्द्रकीय . ३७३ के त्यागी होते हैं । अतः जिस आहार में उन्हें जरा भी दोष की आशंका होती है, उसे वे नहीं ग्रहण करते । सर्वज्ञोक्त धर्म का पालन करने वाले उत्तम ऋषिगण प्राणियों के उपमर्दन की आशंका से सावद्यकार्य नहीं करते । वे किसी भी प्राणी को दण्ड (घात ) नहीं देते, इसीलिए अशुद्ध ( दोषयुक्त) आहार ग्रहण नहीं करते । पहले तीर्थंकर ने इस धर्म का आचरण किया, उसके बाद उनके शिष्यगण इस धर्म का आचरण करने लगे । इसलिए इस धर्म को अनुधर्म कहते है । अथवा यह धर्म शिरीष के फूल के समान अत्यन्त कोमल है, क्योंकि जरा-सा भी दोष (अतिचार) लगने पर यह नष्ट हो जाता है, इस लिए इसे अणुधर्म भी कहते हैं । यही धर्म उत्तम पुरुषों का धर्म है, यही मोक्षप्राप्ति का सच्चा साधन है । यह निर्ग्रन्थधर्म किसी प्रकार के कपट से युक्त नहीं है, अपितु सारे कपटों से रहित है । इसीलिए यह निर्ग्रन्थ धर्म कहलाता है । निर्गतः ग्रन्येभ्यः कपटेभ्य इति निर्ग्रन्थः । जो धर्म ग्रन्थ यानी कपट से रहित है, यह निर्ग्रन्थधर्म कहलाता है । यह धर्म श्रुत चारित्ररूप है । अथवा उत्तम पुरुषों द्वारा आचरित, सर्वज्ञोक्त क्षमा आदि धर्म निर्ग्रन्थधर्म है । उक्त निर्ग्रन्थधर्म में स्थित साधक पूर्वोक्त समाधि को प्राप्त करके अशुद्ध आहार का त्याग करे, वह समस्त परीषहों को समभावपूर्वक सहता हुआ शुद्ध संयम का पालन करे । इस धर्म के आचरण के प्रभाव से पदार्थों के यथार्थस्वरूप को जानता हुआ क्रोधादिरहित त्रिकालदर्शी मूलगुण- उत्तरगुणसम्पन्न साधु सम्पूर्ण द्वन्द्वों से रहित हो जाता है । वह दोनों लोकों में प्रशंसनीय बन जाता है। ऐसे मुनिवरों के सम्बन्ध में किन्हीं विचारकों ने कहा है राजान् तृणतुल्यमेव मनुते, शक्रोऽपि वित्तोपार्जन रक्षणव्ययकृताः प्राप्नोति नो संसारान्तर्वीह लभते शं संतोषात् पुरुषोऽमृतत्वमचिराद् यायात् सुरेन्द्राचितः ॥ मुक्तवन्नियः सर्वज्ञोक्त धर्म में स्थित संतोषी साधु राजा-महाराजा आदि को तिनके के रामान मानता है, वह इन्द्र को भी आदर नहीं देता, वह संतोषी पुरुष धन के अर्जन, रक्षण एवं व्यय के दुःखों को नहीं पाता । वह संसार में रहता हुआ भी मुक्त पुरुष के समान निर्भय होकर विचरण करता है, संतोष के कारण वह इन्द्रादि देवों का भी पूजनीय बन जाता है और शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करता है । सारांश यहाँ बौद्ध भिक्षुओं की तीन मान्यताएँ प्रस्तुत की हैं - ( १ ) पुरुष को खलीपिण्ड मान या समझकर जो उसे मारकर भूनकर खा जाता है, वह पाप Jain Education International For Private & Personal Use Only नैवादरो, वेदनाः । www.jainelibrary.org

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