Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
View full book text
________________
छठा अध्ययन : आर्द्रकीय
३७६
व्याख्या
एकदण्डीमत और आक मुनि द्वारा समाधान ४६वीं गाथा से लेकर ५१वीं गाथा तक में एकदण्डी (सांख्यमतवादी) और आईक मुनि के बीच हुए तात्त्विक संवाद का निरूपण है । जब ब्राह्मणों को परास्त करके आर्द्र क मुनि आगे बढ़ने लगे तो उनके पास एकदण्डी साधक आए और वे कहने लगे- "आर्द्रक मुने ! विषयभोगरत मांसाहारी ब्राह्मणों को युक्तियों से परास्त करके आपने बहुत अच्छा किया । अब हमारे सिद्धान्त सुनो और उन्हें हृदयंगम करो।"
___ हमारे मतानुसार विश्व में कुल २५ तत्त्व हैं। सर्वप्रथम मूल तत्त्व प्रकृति है, जो सत्त्व, रज और तम, इन तीनों गुणों की साम्यावस्था कहलाती है। प्रकृति से महत्तत्त्व (बुद्धि) की उत्पत्ति होती है तथा महत्तत्त्व से अहंकार और अहंकार से १६ गुण (५ ज्ञानेन्द्रियाँ ५ कर्मेन्द्रियाँ, मन और तन्मात्रा) उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार महत्, बुद्धि, अहंकार, मन, १० इन्द्रियाँ, ५ तन्मात्रा और ५ महाभूत-ये २४ तत्व होते हैं । पच्चीसवाँ तत्त्व पुरुष (आत्मा) है । वह चेतनस्वरूप है । इस प्रकार उक्त २५ तत्त्वों के यथार्थज्ञान से मुक्ति प्राप्त होती है, यही हमारा सिद्धान्त है । इस हमारे सिद्धान्त के साथ आर्हत सिद्धान्त का कोई खास अन्तर नहीं है। आप लोग जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, बन्ध और मोक्ष को मानते हैं और हम भी इनका अस्तित्व मानते हैं । हम लोग जिन अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को यम कहते हैं, उन्हें ही आप लोग पंच महाव्रत कहते हैं । इन्द्रिय और मन पर नियंत्रण रखने की बात हम और आप दोनों मानते हैं । अतः हम दोनों के मतों में बहुत सदृशता है। वस्तुतः हम और आप आप ये दो ही सच्चे धर्म (सांख्य एवं जैन) मे स्थित हैं तथा भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों कालों में अपनी स्वीकृत प्रतिज्ञा का हम दोनों पालन करते हैं । हम दोनों के यहाँ आचारप्रधान शील सर्वोत्तम माना गया है । जो यमनियमादि रूप है । हम दोनों के शास्त्रों में सम्यग्ज्ञान या केवलज्ञान को मोक्ष का कारण माना है । संसार का स्वरूप भी हम दोनों के शास्त्रों में समान है। हमारे शास्त्र में बताया गया है कि अत्यन्त असत् वस्तु उत्पन्न नहीं होती, किन्तु कारण में कथंचित् स्थित वस्तु ही उत्पन्न होती है, आप भी यही मानते हैं। द्रव्यरूप से आप भी संसार को नित्य मानते हैं, हम भी । आप संसार की उत्पत्ति और नाश भी मानते हैं, जबकि हम उसका आविर्भाव-तिरोभाव मानते हैं। इसलिए इस विषय में भी कोई खास मतभेद नहीं है।
फिर वे लोग आर्हत दर्शन से अपने दर्शन की तुल्यता सिद्ध करते हुए कहते हैं--शरीर को पुर कहते हैं और उसमें जो निवास करता है उसे हम पुरुष कहते हैं, वह जीवात्मा है, जिसे हमारी तरह आप लोग भी मानते हैं । वह जीवात्मा इन्द्रिय और मन से अग्राह्य (जानने योग्य नहीं) न होने से अव्यक्त है । वह स्वतः कर, चरण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org