Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 441
________________ ४०० सूत्रकृतांग सूत्र इस कारण पीछे याद आने पर भी वे नगर के बाहर न जा सके। प्रातःकाल होते ही राजपुरुषों द्वारा वे पकड़े गये । राजा ने उन्हें वध करने की आज्ञा दी। इस भयंकर समाचार को सुनकर उनके पिता के मन में बड़ी बेचैनी हुई। वृद्ध वैश्य ने राजा के पास जाकर अपने पुत्रों को दण्डमुक्त करने के लिए बहुत अनुनय-विनय की । जब राजा ने उसकी एक न सुनी तो उसने राजा से अनुरोध किया- “राजन् ! यदि आप मेरे पाँचों पुत्रों को नहीं छोड़ना चाहते तो उनमें से चार को छोड़ दीजिए।" इस पर भी राजा राजी नहीं हुआ। तब उसने तीन को छोड़ने की प्रार्थना की। इस के पश्चात दो को छोड़ने की प्रार्थना की, परन्तु राजा जब दो को भी छोड़ने को राजी नहीं हुआ, तब उसने गिड़गिड़ाकर कहा-“मैं बिल्कुल निर्वंश हो जाऊँगा, अत: कम से कम एक पुत्र को तो छोड़ देने की कृपा करें ताकि मेरा वंश चलता रहे।' राजा ने उसकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली और उसके एक पुत्र को उसके वंश की रक्षा के लिए छोड़ दिया। यही इस न्याय का स्वरूप है। परन्तु यहाँ यह बात बतानी है कि जैसे वृद्ध वैश्य अपने पाँचों ही पुत्रों को राजदण्ड से मुक्त कराना चाहता था, लेकिन जब उसका मनोरथ पूरा न हुआ तो उसने एक पुत्र को ही छुड़ाकर सन्तोष माना । इसी तरह साधु सभी प्राणियों (षटकाय) के दण्ड का त्याग कराना चाहता है, उसकी यह इच्छा नहीं है कि कोई भी मनुष्य किसी भी प्राणी का घात करे। परन्तु जब वह पुरुष सभी प्राणियों का घात करना नहीं छोड़ना चाहता, तब साधु जितना बन सके उतना ही त्याग करने का उस श्रावक से अनुरोध करता है। अर्थात् इस पर वह छह काया के जीवों के घात में से त्रसकाय के जीवों का घात करना छोड़ता है। इसलिए त्रसकाय के जीवों को मारने का त्याग कराने वाला साधु स्थावर प्राणियों का घात का समर्थक नहीं होता। इसी बात को बताने हेतु गाथापतिचोरविमोक्षणन्याय (दृष्टान्त) दिया गया है। सारांश इस सूत्र में उदकपेढालपुत्र ने श्री गौतम स्वामी के समक्ष एक सुझाव प्रस्तुत किया है कि अगर आप लोग प्रत्याख्यान कराते एवं श्रावक द्वारा प्रत्याख्यान करते समय जो वाक्य बोलते हैं, उसमें त्रस के आगे 'भूत' पद जोड़ दें तो वह प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान हो सकता है । आशा है, आप मेरे सुझाव से सहमत होंगे। मुझे यह न्यायसंगत लगता है । आप भी इसे पसन्द करेंगे। मूल पाठ सवायं भगवं गोयमे! उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी-'आउसंतो उदगा! नो खलु अम्हे एयं रोयइ, जे ते समणा वा माहणा वा एवमाइक्खंति जाव परूवेंति, णो खलु ते समणा वा णिग्गंथा वा भासं भासंति, अणुतावियं खलु ते भासं भासंति, अब्भाइक्खंति खलु ते समणे समणोवासए वा जेहि वि अन्नहि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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