________________
सप्तम अध्ययन : नालन्दीय
छोड़कर गाथापतिचोरविमोक्षणन्याय से त्रस प्राणी को दण्ड देने का तुम्हारे त्याग है।" पर तु इस रीति से प्रत्याख्यान कराने पर प्रतिज्ञा-भंग होता है, क्योंकि प्राणी परिवर्तनशील हैं । वे सदा एक ही शरीर में नहीं रहते, किन्तु भिन्न-भिन्न कर्मों के उदय से भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म ग्रहण करते हैं। अतएव कभी तो त्रसजीव त्रस शरीर त्यागकर स्थावर शरीर में आ जाते हैं, और कभी स्थावर प्राणी स्थावर शरीर का त्याग करके त्रस शरीर में आ जाते हैं । ऐसी दशा में जिसने यह प्रतिज्ञा की है कि "मैं त्रस प्राणी का धात न करूंगा" वह व्यक्ति स्थावर शरीर को पाये हुए उस त्रस प्राणी को अपने घात के योग्य मानता है, और आवश्यकतानुसार उसका घात भी कर डालता है। फिर त्रस प्राणी को दण्ड न देने (हिंसा न करने) की उसकी जो प्रतिज्ञा है, वह अभंग कहाँ रही, वह तो खण्डित हो चुकी न ? जैसे किसी पुरुष ने प्रतिज्ञा की-"मैं नागरिक पुरुष या नागरिक पशु को नहीं मारूंगा।" वह पुरुष यदि नगर से बाहर गए हुए उस भूतपूर्व नागरिक पुरुष या पशु का घात कर देता है तो वह अपनी प्रतिज्ञा को भंग कर ही देता है। इसी तरह त्रस शरीर को छोड़कर स्थावरकाय में आए हुए प्राणी को जो व्यक्ति मारता है, वह त्रसकाय के प्राणी को न मारने की प्रतिज्ञा का उल्लंघन करता है । फिर जो त्रस प्राणी स्थावरकाय में पैदा होते हैं, उनमें ऐसा कोई चिन्ह नहीं होता, जिससे उनकी पहिचान हो सके। कि वह पहले त्रस था । ऐसी स्थिति में जिसको दण्ड न देने की प्रतिज्ञा की गई थी, उसी को दण्ड दिया जाता है। इसलिए त्रस प्राणी को न मारने का प्रत्याख्यान करना दुष्प्रत्याख्यान करना है तथा उक्त रीति से प्रत्याख्यान कराना भी दुष्प्रत्याख्यान कराना है।
सारांश उदकपेढालपूत्र ने गौतम स्वामी से पूछा कि जब कोई श्रमणोपासक आपके अनुगामी कुमारपुत्र श्रमण के पास प्रत्याख्यान करने आते हैं, तो वे अभियोग के सिवाय त्रसप्राणियों की हिंसा करने का त्याग कराते हैं, मगर यह दुष्प्रत्याख्यान है, क्योंकि जब त्रस जीव (जिनका वध न करने का नियम लिया था) शरीर छोड़कर स्थावर बन जाते हैं, तब वे जीव उनके लिए घात करने योग्य बन जाते हैं, मौका आने पर वे उनका घात भी कर देते हैं । इस दृष्टि से यह दुष्प्रत्याख्यान है ।
मूल पाठ एवं ण्हं पच्चक्खंताणं सुपच्चक्खायं भवइ, एवं ण्हं पच्चक्खावेमाणाणं सुपच्चक्खावियं भवइ, एवं ते परं पच्चक्खावेमाणा णातियरंति सयं पइण्णं णण्णत्थ अभिओएणं गाहावइचोरग्गहणविमोक्खणयाए तसभूएहिं पाहिं णिहाय दंडं, एवमेव सइ भासाए परक्कमे विज्जमाणे जे ते कोहा वा लोहा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org