Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र पर आप लोगों को ऐसा अभीष्ट नहीं है। अतः जैसे गृहस्थ दोषरहित नहीं है, इसी तरह आप लोग भी दोषरहित नहीं हैं।
जो पुरुष श्रमणों के व्रत (धर्म) में स्थित होकर प्रतिवर्ष एक महाकाय प्राणी का वध करते हैं, या करने में धर्म मानते हैं, तथा दूसरों को इस कार्य का उपदेश देते हैं, वे अपना और दूसरों का भारी अहित करते हैं। वे अज्ञानी और अनार्य (अनाड़ी) है । वर्ष में एक महाकाय प्राणी का घात करने से सिर्फ एक ही प्राणी का धात नहीं होता, अपितु उस प्राणी के आश्रित रहे हुए अनेक जीवों का घात होता है। उस प्राणी के माँस, खून, चर्बी आदि में रहने वाले या पैदा होने वाले अनेक स्थावर और जंगम प्राणियों का घात होता है । इसलिए वर्ष भर में जो एक प्राणी की हत्या की बात कहते हैं, वे घोर हिंसक हैं, पंचेन्द्रिय वध के कारण नरक के मेहमान बनते हैं, वे अहिंसा की उपासना से कोसों दूर है । अहिंसा की उपासना तो एकमात्र माधुकरीवृत्ति या गोचरी की वृत्ति से ही होती है, परन्तु जो विवेकमूढ़ हैं, उनके गले यह बात नहीं उतरती । ऐसे हिंसामय कार्य करने वाले जंगली एवं दाम्भिक लोगों को सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। अत: मानव को इन दूषित एवं अनाड़ी लोगों द्वारा चलाए हुए असन्मार्गों का आश्रय कदापि नहीं लेना चाहिए।
इस प्रकार हस्तितापसों को परास्त करके आर्द्र क मुनि श्रमण भगवान् महावीर की सेवा में पहुंचे।
सारांश ५२ से लेकर ५४वीं गाथा तक में हस्तितापसों द्वारा छेड़े गए अहिंसा सम्बन्धी प्रश्न का आद्रक मूनि द्वारा दिया गया उत्तर अंकित है। वास्तव में हस्तितापसों की अहिंसा सम्बन्धी मान्यता बिलकुल मिथ्या और विचित्र है।
मूल पाठ बुद्धस्स आणाए इमं समाहि, अस्सि सुठिच्चा तिविहेण ताई। तरिउं समुदं व महाभवोघं, आयाणवं धम्ममुदाहरेज्जा त्तिबेमि ॥ ५५ ।।
संस्कृत छाया । बुद्धस्याज्ञयेमं समाधिमस्मिन् सुस्थाय त्रिविधेन त्रायी। तरितु समुद्रमिव महाभवौघमादानं धर्ममुदाहरेद् इति ब्रवीमि ॥ ५५ ॥
___अन्वयार्थ (बुद्धस्स आणाए इमं समाहि) तत्त्वदर्शी भगवान् की आज्ञा से इस शान्तिमय धर्म को अंगीकार करके (अस्सि सुठिच्चा तिविह ताई) इस धर्म में अच्छी तरह स्थित होकर तीनों करणों से मिथ्यात्व की निन्दा करता हुआ साधक अपनी तथा
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