Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 424
________________ छठा अध्ययन : आर्द्र कीय ३८३ व्याख्या हस्तितापसों को आर्द्रक मुनि का करारा उत्तर ५४वीं गाथा में हस्तितापसों ने अपनी अहिंसावृत्ति की डींग हाँकी है, जिसका ५५-५६वीं गाथाओं में श्री आर्द्र क मुनि ने बहुत ही करारा उत्तर दिया है । पूर्वोक्त प्रकार से एकदण्डियों (सांख्यमतवादियों) को निरुत्तर करके जब श्री आर्द्र क मुनि भगवान् महावीर के पास जाने लगे, तो कुछ हस्तितापसों ने आकर उन्हें धेर लिया। उन्हें वे मजबूर करने लगे-आर्द्रक मुने ! बुद्धिमान् मनुष्यों को सदा अल्पत्व और बहुत्व का विचार करना चाहिए । जो कन्दमूल, फल आदि खाकर अपना निर्वाह करते हैं, वे स्थावर प्राणियों को तथा उनके आश्रित अनेक जंगमप्राणियों का संहार करते हैं । गुल्लर आदि में अनेक जंगम प्राणी अपना डेरा जमाए रहते हैं। इसलिए गुल्लर आदि फलों को जो खाते हैं, वे तापस उन अनेक जंगम प्राणियों का संहार कर देते हैं । तथा जो लोग भिक्षा से अपना जीवन निर्वाह करते हैं, वे भिक्षा के लिए इधर-उधर जाते समय चींटी आदि अनेक प्राणियों का घात कर देते हैं तथा भिक्षा की कामना से उनका चित्त भी दूषित हो जाता है। अतः हम (तापस) लोग वर्ष भर में एक भारी भरकम हाथी को बाण से मारकर उसके मांस से वर्ष भर तक अपना निर्वाह कर लेते हैं । ऐसा करके हम शेष समस्त जीवों की रक्षा करते हैं। अत: हमारे धर्म को आप स्वीकार कर लें। हमारे धर्म में वर्ष भर में एक जीव का विनाश अवश्य है, जबकि दूसरे धर्मों में अनेक जीवों का प्रतिदिन विनाश करके अपना निर्वाह किया जाता है, जबकि हम उन (शेष) जीवों को अभयदान दे देते हैं । आईक मुनि ने शान्ति से हस्तितापसों की बात सुनी तो वे दंग रह गए । इस विचित्र मान्यता का उन्होंने अपनी लाक्षणिक शैली में उत्तर दिया-बन्धुवर ! हिंसाअहिंसा की न्यूनाधिकता का नापतौल मृत जीवों की संख्या के आधार पर नहीं किया जाता । वह किया जाता है-प्राणी की चेतना, इन्द्रियों, मन, शरीर आदि के विकास के आधार पर । यदि कोई वर्ष भर में सिर्फ एक विशालकाय जीव को मारता है, तो वह हिंसा के दोष से कदापि बच नहीं सकता। उस पर भी हाथी जैसे महाकाय पंचेन्द्रिय जीव को मारने वाले को तो किसी भी सूरत में दोषरहित नहीं कहा जा सकता। जो पुरुष श्रमण धर्म में प्रवजित है, वह सूर्य की किरणों से स्पष्ट नजर आने वाले मार्ग पर गाड़ी के जूए जितनी लम्बी दृष्टि रखकर चलते हैं। वे ईर्यासमिति से युक्त होकर ४२ भिक्षादोषों से वजित करके आहारादि ग्रहण करते हैं। वे लाभ-अलाभ दोनों में सम रहते हैं, अत: उनके द्वारा चींटी आदि प्राणियों का घात होना सम्भव नहीं है। तथा उन्हें आशंसा का दोष भी नहीं लगता। फिर आप लोग अल्पजीवों के घात से पाप होना नहीं मानते, यह मान्यता भी ठीक नहीं है। अगर ऐसा माना जाएगा तो जो गृहस्थ क्षेत्र-काल से दूरवर्ती प्राणियों का घात नहीं करते, वे अन्य प्राणियों के घातक होने पर भी दोषरहित माने जाने लगेंगे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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