Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 419
________________ ३७८ सूत्रकृतांग सूत्र आप और हम दोनों ही धर्म में सम्यक् प्रकार से स्थित-प्रवृत्त हैं । (अस्सिं सुठिच्चा तह एसकाले) हम दोनों भूत, वर्तमान तथा भविष्य, तीनों काल में धर्म में स्थित हैं। (आयारसीले नाणी बुइए) हम दोनों के मत में आचारशील पुरुष को ही ज्ञानी कहा गया है । (संपरायमि ण विसेसमत्थि) आपके और हमारे दर्शन में संसार के स्वरूप में कोई खास अन्तर है ॥४६॥ (पुरिसं अव्वत्तरूवं महंत सणातणं अव्वयं अक्खयं) यह पुरुष (आत्मा) अव्यक्त रूप है, यानी इन्द्रिय मौर मन से अगोचर है, तथा सर्वलोकव्यापी और सनातन (नित्य) है, यह क्षय और व्यय (नाश) से रहित है (से सव्वेसु भूतेसु वि सव्वओ ताराहि चंदो व समत्तरूवे) यह आत्मा (पुरुष) सब भूतों में सम्पूर्ण रूप से रहता है, जैसे चन्द्रमा समस्त तारों के साथ सम्पूर्ण रूप से सम्बन्धित रहता है ॥४७॥ आर्द्रक मुनि कहते हैं- (एवं ण मिज्जंती) हे एकदण्डियो ! आपके सिद्धान्तानुसार सुखी (सुभग) एवं दु:खी (दुर्भग) आदि व्यवस्था की संगति नहीं हो सकती (ण संसरंती) और जीव (आत्मा) का अपने कर्म से प्रेरित होकर नाना गतियों में गमनागमन भी सिद्ध नहीं हो सकता । (ण माहणा खत्तियवेस पेसा) एवं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और प्रेष्य (शूद्र) रूप भेद भी सिद्ध नहीं हो सकता, (कोडा य पक्खी य सरोसिवा य) तथा कीट, पक्षी, एवं सरीसृप -~-रेंगने वाले प्राणी इत्यादि योनियों की विविधता भी सिद्ध नहीं हो सकती, (नरा य सव्वे तह देवलोया) इसी प्रकार सर्वमनुष्य तथा देवलोक के देव आदि गतियों के भेद भी सिद्ध नहीं हो सकते ॥४८॥ (इह लोयं केवलेणं अजाणित्ता) इस लोक को केवलज्ञान के द्वारा न जानकर (जे अजाणमाणा धम्म कहति) जो अज्ञानी धर्म का उपदेश करते हैं, (अप्पाणं परं च अणोरपारे संसारघोर मि णासंति) वे स्वयं-नष्ट जीव अपने को और दूसरे को भी अपार एवं भयंकर संसार में नष्ट करते हैं ॥४६॥ (जे उ समाहिजुत्ता इह पुन्नेण केवलेण नाणेण लोय विजाणंति) परन्तु जो समाधियुक्त पुरुष पूर्ण केवलज्ञान के द्वारा इस लोक को सम्यक् प्रकार से जानते हैं, (समत्तं धर्म कहति) वे सच्चे धर्म का उपदेश देते हैं । (तिन्ना अप्पाणं परं च तारंति) वे पाप से पार हुए पुरुष स्वयं को और दूसरे को भी संसार सागर से पार करते हैं ॥५०॥ (इह लोगे जे गरहिय ठाणं आवसंति जे यावि चरणोववेया तं तु मईए सम्म उदाहडं) इस लोक में जो पुरुष निन्दनीय आचरण करते हैं और जो पुरुष उत्तम आचरण करते हैं, उन दोनों के अनुष्ठानों को असर्वज्ञ जीव अपनी इच्छा से या बुद्धि से समान बतलाते हैं। (अह आउसो विप्परियासमेव) अथवा हे आयुष्मन् ! वे शुभ अनुष्ठान करने वालों को अशुभ आचरण करने वाले और अशुभ अनुष्ठान करने वालों को शुभ आचरण करने वाले बताकर विपरीत प्ररूपणा करते हैं ॥५१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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