Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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छठा अध्ययन : आर्द्र कीय
नेत्रैर्निरीक्ष्य
बिलकण्टककीटसर्पान्,
सम्यक् पथा व्रजति तान् परिहृत्य सर्वान् । कुज्ञान- कुश्रुति कुमार्ग कुइष्टिदोषान्, सम्यक विचारयत कोऽत्र परापवादः ?
"नेत्रवान् पुरुष अपनी आँखों से बिल, काँटे, कीड़े और साँप आदि को देखकर उन सबको छोड़कर ठीक रास्ते से चलता है, इसी तरह विवेकी पुरुष कुज्ञान, कुश्रुति ( मिथ्या आगम), कुमार्ग और कुदृष्टि के दोषों का भलीभाँति विचार करके सम्यकुमार्ग से चलता है । ऐसा करने में कौन-सी परनिन्दा है ?"
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वास्तव में देखा जाय तो वे ही अन्यदर्शनी परनिन्दा करते हैं, जो पदार्थ को एकान्त नित्य या एकान्त अनित्य अथवा एकान्त सामान्य या विशेष स्वरूप को मानते हैं, जो अनेकान्तवादी अनेकान्त पक्ष को मानते हैं, वे किसी की निन्दा नहीं करते, क्योंकि वे तो पदार्थों को कथंचित् सत् कथंचित् असत् तथा कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य, एवं कथंचित् सामान्य व कथंचित् विशेष रूप से स्वीकार करके सबका समन्वय करते हैं। ऐसा किये बिना जगत् को वस्तुस्वरूप का ज्ञान हो नहीं सकता । इसलिए हम रागद्व ेषरहित होकर सिर्फ एकान्त दृष्टि को दूषित और अनेकान्त दृष्टि का समर्थन करते हैं । अन्य दार्शनिकों के ग्रन्थों में जो एकान्त दृष्टिकोण प्रतिपादित है, उसे और अपने दर्शन के अनेकान्तपरक दृष्टिकोण को उजागर कर देते हैं । ऐसा करना किसी की निन्दा करना नहीं है ।
आगे आर्द्र कुमार कहते हैं - वस्तुतः देखा जाए तो शीतजल, बीजकाय आदि का सेवन करना मोक्षमार्ग नहीं है, अपितु सर्वज्ञ आर्य पुरुषों द्वारा प्रतिपादित वस्तु के यथार्थ स्वरूप को प्रगट करने वाला सर्वोत्तम मार्ग सम्यक्दर्शन, ज्ञान और चारित्र - रूप है, वही मनुष्यों के कल्याण का कारण है ।
उस धर्म का पालन करने वाले संयमी पुरुष ऊपर, नीची और तिरछी दिशाओं में रहने वाले स और स्थावर प्राणियों को दुःखित करने की पीड़ा की आशंका से वे किसी की निन्दा नहीं करते हैं। जिन कार्यों से प्राणियों का उपमर्दन सम्भव है उन सावद्य अनुष्ठानों का आचरण कदापि नहीं करते । वे रागद्व ेषरहित पुरुष जगत् के उपकारार्थ जो वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करते हैं, वह किसी की निन्दा करना नहीं है । यदि ऐसा करना भी निन्दा हो, तब तो आग गर्म होती है, पानी ठंडा होता है, यह कहना भी निन्दा मानना चाहिए । अतः वस्तु के यथार्थ स्वरूप को बताना निन्दा नहीं है ।
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मूल पाठ
आगंतगारे आरामगारे, समणे उ भीते ण उवेति वासं । दक्खा हु संतो बहवे मणुस्सा, ऊणातिरित्ता य लवालवा य ॥ १५ ॥
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