Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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छठा अध्ययन : आर्द्रकीय
३६७
(अहवा वि मिलक्खु पिन्नागबुद्धीइ नरं सूले विद्धू ण पएज्जा) अथवा वह म्लेच्छ पुरुष मनुष्य को खली समझकर उसे शूल में बींधकर पकाए (अलाबुयंति कुमारगं वावि) अथवा कुमार (बालक) को तुम्बा समझकर पकाए तो (अम्हं पाणिवहेण न लिप्पइ) वह हमारे मत में प्राणिघात के पाप का भागी नहीं होता ।।२७।।
(केइ पुरिसं कुमारग वा पिन्नायपिंड सूलंमि विद्धू ण जायतेए आरुहेत्ता पए) कोई पुरुष मनुष्य को या बालक को खली का पिण्ड मानकर उसे शूल में बींधकर आग में रख (डाल) कर पकाए (सति तं बुद्धाण पारणाए कप्पइ) तो वह पवित्र है, वह बुद्धों के पारणे के योग्य है ॥२८॥
(जे दुवे सहस्से सिणायगाणं भिक्खुयाणं णियए भोयए) जो पुरुष दो हजार भिक्षुओं को प्रतिदिन भोजन कराता है, (ते सुमहं पुन्नक्खधं जिणित्ता महंतसत्ता आरोप्प भवंति) वह महान् पुण्य उपार्जन करके महापराक्रमी आरोप्य नामक देव होता है ॥२६॥
(इह संजयाण अजोगरूवं) आर्द्रक मुनि भिक्षुओं की बात सुनकर प्रत्युत्तर देते हैं-यह शाक्यमत संयमी पुरुषों के लिए अयोग्य है । (पाणाणं पसज्झ काउं) प्राणियों का घात करने पर भी पाप नहीं होता, (जे वयंति, जे यावि पडिसुणंति दोण्ह वि अबोहिए तं असाहु) जो ऐसा कहते हैं, और जो सुनते हैं, दोनों के लिए अबोधि (अज्ञान) वर्द्धक और बुरा है ॥३०॥
(उडढं अहेयं तिरिय दिसासु तसथावराणं लिंग विनाय) ऊँची, नीची और तिरछी दिशाओं में त्रस और स्थावर प्राणियों के सद्भाव के चिह्न को जानकर (भूयाभिसंकाइ दुगुछमाणे वदे करेज्जा कुओ विहऽत्थी) जीवहिंसा की आशंका से विवेकी पुरुष हिंसा से घृणा करता हुआ विचारकर बोले या कार्य भी विचारपूर्वक करे तो उसे दोष कैसे हो सकता है ? ॥३१॥
(पुरिसेत्ति विन्नत्ति न एवमत्थि तहा हु से पुरिसे अणारिया) खली के पिण्ड में पुरुषबुद्धि मूर्ख को भी नहीं होती, अतः जो पुरुष खली के पिण्ड में पुरुषबुद्धि अथवा पुरुष में खली के पिण्ड की बुद्धि रखता है, वह अनार्य है। (पिन्नगपिडियाए को संभवो) खली की पिण्डी में पुरुष की बुद्धि कैसे संभव है ? (एसा वायावि बुइया असच्चा) अतः तुम्हारे द्वारा कही हुई ऐसी वाणी (बात) भी असत्य हो जाती है ॥३२॥
(वायाभियोगेण जमावहेज्जा णो तारिसं वायमुदाहरिज्जा) जिस वचन के प्रयोग करने से जीव को पाप लगता है, ऐसा वचन कदापि नहीं बोलना चाहिए । (एयौं वयणं गुणाणं अट्ठाणं) क्योंकि आपका पूर्वोक्त वचन गुणों का स्थान (कारण) नहीं है, अपितु कर्मबन्ध का कारण है । (एय उरालं दिक्खिए णो बूय) अतः दीक्षा धारण किया हुआ व्यक्ति पूर्वोक्त निःसार वचन न बोले ।।३३॥
(अहो तुन्भे एव अट्ठे लद्ध) अहो बौद्धो ! तुमने ही संसार भर के पदार्थों
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