Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 410
________________ ३६६ छठा अध्ययन : आर्द्रकीय अनुष्ठान से विरक्त रहने वाले साधु पुरुष (सव्वेंस पाणाणं दंडं निहाय ) समस्त प्राणियों को दण्ड देने का त्याग करके ( तहष्पगारं ज भुजंति) उस प्रकार के आहार का यानी दोषयुक्त आहार का उपभोग नहीं करते, ( इह संजयाणं एसो अणुधम्मो ) इस जैन शासन में संयमी पुरुषों का यही धर्म है ॥४१॥ ( निग्गंथ धम्मंमि इमं समाहि अस्सि सुठिच्चा अणिहे चरेज्जा) इस निर्ग्रन्थ धर्म में स्थित पुरुष पूर्वोक्त समाधि को प्राप्त करके तथा इसमें भली-भांति रहकर मायारहित होकर संयम का अनुष्ठान करे । (बुद्ध मुणी सीलगुणोववेए अच्चत्थं तं सिलोग पाउणई) इस धर्म के आचरण के प्रभाव से पदार्थ ज्ञान को प्राप्त विकाल - वेदी तथा शील और गुणों से युक्त पुरुष अत्यन्त प्रशंसा का पात्र होता है ॥४२॥ व्याख्या २६वीं गाथा से लेकर बौद्धों के अपसिद्धान्त का आर्द्रक मुनि द्वारा खण्डन ४२वीं गाथा तक में शास्त्रकार ने बौद्धभिक्षुओं के द्वारा प्रतिपादित अपसिद्धान्त का आर्द्र के मुनि द्वारा किया गया खण्डन अंकित किया है । पूर्वोक्त प्रकार से गोशालक को निरुत्तर करके भगवान् महावीर के पास जाते हुए श्री आर्द्र मुनि को रास्ते में शाक्यमतीय भिक्षु मिले । वे आर्द्रक मुनि से बोले - आर्द्र मुनि ! अच्छा हुआ, आपने बनिये के दृष्टान्त को दूषित बताकर बाह्य आचरण का खण्डन किया है, क्योंकि बाह्य अनुष्ठान तुच्छ है, आन्तरिक अनुष्ठान ही मोक्ष और संसार का साधन है । यही हमारे दर्शन का सिद्धान्त है । शाक्यभिक्षुओं ने अपनी बात का इस प्रकार प्रतिपादन किया - जैसे कोई मनुष्य उपद्रव आदि से पीड़ित होकर परदेश चला गया । दैवयोग से वह म्लेच्छों के देश में जा पहुँचा । वहाँ मनुष्यों को पकाकर खा जाने वाले बर्बर म्लेच्छ रहते थे । अतः उनके डर से वह पुरुष खली के पिण्ड पर अपने वस्त्र डालकर वहीं कहीं छिप गया । म्लेच्छ उसे ढूँढ़ रहे थे, तभी उन्होंने उसके वस्त्र से ढके हुए खली के पिण्ड को देखकर उसे मनुष्य समझा और लोहे के शूल में उसे पिरोकर उस पिण्ड को पकाया, तथा वस्त्र से किसी तुम्बे को बालक समझकर उसे भी पकाया। इस प्रकार मनुष्यबुद्धि से खली के पिण्ड और बालकबुद्धि से तुम्बे को पकाने वाले उन म्लेच्छों को मनुष्य वध का पाप लगा । क्योंकि पाप और पुण्य आन्तरिक भावों के अनुसार ही होता है । यद्यपि म्लेच्छों द्वारा मनुष्य - वध नहीं हुआ, तथापि उनके चित्त दूषित होने से उन्हें मानववध का ही पाप लगा । यह हमारी मान्यता है । द्रव्यतः प्राणिघात न होने पर भी चित्त दूषित होने से जीव को प्राणिवध का पाप लगता है, यह समझ लेना चाहिए । इसके साथ ही हमारा यह भी सिद्धान्त है कि म्लेच्छ पुरुष यदि मनुष्य को खली मानकर तथा बालक को तुम्बा मानकर पकाएँ तो उन्हें प्राणिवध का पाप नहीं लगता । इस दृष्टि से यदि कोई बौद्धभक्त मनुष्य को या बालक को खली के पिण्ड मान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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