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छठा अध्ययन : आर्द्र कीय
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है, नुकसान है। जिस धन के लिए बनिये इतने सावद्य कार्य करते हैं, वह धन भी सबको प्राप्त नहीं होता, किसी पुण्यवान् को ही उसकी प्राप्ति होती है, किसी को अनेक उद्योग करने पर भी नहीं होती। इसलिए बनिये की आत्महानिकारक प्रवृत्ति और भ० महावीर की स्वपर - आत्मिक लाभ की प्रवृत्ति में रात-दिन का अन्तर है ।
और फिर बनिये को उद्योग-धन्धों द्वारा जो लाभ होता है, वह भी सदा स्थायी नहीं होता, वह कभी होता है, कभी नहीं होता । कभी तो लाभ के बदले भारी हानि भी हो जाती है । दूसरे पहलू से इसके अर्थ पर विचार करें तो धनादि का लाभ न तो एकान्तिक सुख के लिए होता है, और न आत्यन्तिक सुख के लिए; इसलिए धनादि का लाभ इन दोनों गुणों से रहित होता है, इसलिए विद्वानों का कहना है,
नये के लाभ में कोई गुण - विशेषता नहीं है । जबकि भगवान् महावीर जो केवलज्ञान और मोक्षसुख का लाभ प्राप्त करते हैं, वह एकान्तिक और आत्यन्तिक गुणों से युक्त हैं। क्योंकि वह उदय (लाभ) सादि - अनन्त हैं । सचमुच भ० महावीर ने धर्म-साधना के द्वारा निर्जरारूप लाभ या केवलज्ञान का लाभ प्राप्त किया है, वही यथार्थ लाभ है, . और वह लाभ एकान्त लाभ है, क्योंकि उसके साथ अलाभ का तो कोई प्रश्न ही नहीं है, और वह आत्यन्तिक भी है। क्योंकि एक बार प्राप्त होने पर वह लाभ नष्ट नहीं होता, उससे बढ़कर कोई अन्य लाभ नहीं है । ऐसे उदय (लाभ) को प्राप्त करके भगवान् दूसरे लोगों को भी उसकी प्राप्ति कराने के लिए धर्मोपदेश देते हैं । भगवान् महावीर समस्त पदार्थों के यथार्थ स्वरूप के ज्ञाता हैं तथा प्राणियों के त्राता हैं अथवा भव्य जीवों को संसार सागर से पार करने वाले हैं । अतः भगवान् को बनिये की उपमा देना तुम्हारी अज्ञानता का सूचक है ।
भगवान् महावीर स्वामी देवताओं द्वारा रचित समवसरण, छत्र, चामर, सिंहासन आदि का उपभोग करते हैं, इसलिए आधाकर्मी स्थान का उपयोग करने वाले साधु की तरह भगवान् भी अनुमोदनरूप कर्मों से लिप्त क्यों नहीं हो सकते ? गोशालक की इस आशंका की निवृत्ति के लिए आर्द्रक मुनि कहते हैं— गोशालक ! यद्यपि भगवान् महावीर देवों द्वारा रचित समवसरण आदि का उपयोग करते हैं, तथापि उनको कर्मबन्ध नहीं होता, क्योंकि वे कर्मबन्ध के कारण रूप हिंसा, परिग्रह, ममत्व, रागद्वेष आदि से दूर रहते हैं । वे पूर्ण अहिंसक होने के नाते किसी भी प्राणी की हिंसा न करते हुए उनका उपयोग करते हैं तथा समवसरण आदि के लिए उनकी जरा भी इच्छा नहीं होती, अपितु तृण और मणि, स्वर्ण-मुक्ता और पत्थर को समान दृष्टि से देखते हुए वे उनका उपयोग करते हैं । देवगण भी धर्म (प्रवचन) की उन्नति और भव्य जीवों को धर्म में प्रवृत्त करने के लिए समवसरण आदि की व्यवस्था करते हैं । भगवान् का इनमें जरा भी आग्रह न होने से उन्हें कर्मबन्ध नहीं होता । भगवान् समस्त प्राणियों पर अनुकम्पा करके ही समवसरण में विराजमान होकर धर्मोपदेश
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