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सूत्र कृतांग सूत्र
साधु मुनि से यह पूछे कि मुझे आज अमुक के यहाँ भिक्षा (दान) प्राप्ति होगी या नहीं? ऐसे प्रसंग पर साधुत्व की मर्यादा में स्थित साधु को एकान्तरूप से विधि या निषेध की भाषा में उत्तर नहीं देना चाहिए, परन्तु भाषासमिति द्वारा मोक्षमार्गसम्मत उत्तर देना चाहिए।
मूल पाठ इच्चेएहिं ठाणेहिं जिणदिहिं संजए। धारयंते उ अप्पाणं, आमोक्खाए परिवएज्जासि ॥ ३३ ॥
॥त्ति बेमि॥ संस्कृत छाया इत्येतैः स्थानजिनदृष्टः संयतः । धारयंस्त्वात्मानम्, आमोक्षाय परिव्रजेत् ॥ ३३ ।।
॥इति ब्रवीमि।। अन्वयार्थ (इच्चेएहि जिणदिहिं ठाणेहिं) इस अध्ययन में कहे गए इन जिनोक्त स्थानों के द्वारा (संजए अप्पाणं धारयंते उ) अपने आपको संयम में स्थापित करता हुआ साधु (आमोक्खाए परिव्वएज्जा) मोक्ष प्राप्त होने तक प्रयत्न करे।
व्याख्या पूर्वोक्त सभी बातों का मोक्षप्राप्तिपर्यन्त ध्यान रखे
यह इस अध्ययन की अन्तिम गाथा है। इस अध्ययन में जिनप्रतिपादित या जिनदर्शनसम्मत जो बातें कही गई हैं, उनमें भलीभांति अपने आपको नियुक्त करके मोक्षप्राप्ति तक संयम में पुरुषार्थ करने की बात कही गई है। यों तो इस अध्ययन में प्रतिपक्षी लोगों द्वारा मान्य बातों का भी उल्लेख किया गया है, लेकिन प्रतिपक्षमान्य प्रत्येक बात का साथ ही साथ निषेध करके जिनेन्द्रमान्य वीतरागसिद्धान्तसम्मत बातों को मानने, उसी की धारणा-प्ररूपणा करने एवं उसी के अनुरूप अपना जीवन ढालने की प्रेरणा शास्त्रकार ने दी है।
सारांश इस अध्ययन में कहा हुआ वाक्संयम का भलीभाँति पालन करता हुआ साधु मोक्षप्राप्तिपर्यन्त संयम का अनुष्ठान करे।
इस प्रकार सूत्रकृतांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध का पंचम अध्ययन अमरसुखबोधिनी व्याख्या सहित सम्पूर्ण हुआ।
॥अनगारभुत आचारभु त नामक पंचम अध्ययन समाप्त ॥
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