Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
इस जगत् में देखे जाते हैं। वे किसी को पीड़ा नहीं पहुंचाते, वे शान्त, दान्त, क्षमाशील, कषायविजयी एवं जितेन्द्रिय सत्यवादी तथा मिताहारी होकर इस भूमण्डल पर विचरण करते हैं । ऐसे स्वपरहितकारी साधुओं को देखकर ऐसी मिथ्या धारणा नहीं बना लेनी चाहिए कि आजकल सच्चा साधु तो कोई है ही नहीं, ये सब मिथ्याचारी हैं, ढोंगी हैं, कपटी हैं, साधु का वेश धारण करके भी साधु नहीं है । अथवा सराग होकर भी ये वीतराग का-सा डौल करते हैं, अतः दम्भी हैं, इत्यादि मिथ्या कल्पना करना या दूसरे से ऐसा कहना उचित नहीं है । तात्पर्य यह है कि ये साधु नहीं, ठग हैं, ढोंगी हैं, धर्मध्वजी हैं, दम्भी हैं, इस प्रकार की बुद्धि या धारणा सुसाधुओं के बारे में नहीं रखनी चाहिए। क्योंकि जो पुरुष सर्वज्ञ नहीं है, छद्मस्थ है, वह ऐसा निश्चय नहीं कर सकता कि अमुक व्यक्ति सराग है, अमुक वीतराग है, अमुक कपटी है या अमुक सच्चा साधु है । दूसरों की चित्तवृत्ति को जानना अल्पज्ञ व्यक्ति के वश की बात नहीं है। शास्त्रकार का आशय यह है कि वह साधक चाहे स्वतीर्थी हो या परतीर्थी, उसके विषय में पूर्वोक्त गलत निर्णय साधु को नहीं करना चाहिए, न उसके सम्बन्ध में ऐसी मिथ्या धारणा बनाकर किसी को कहना चाहिए। किसी साधक ने ठीक ही कहा है-.
यावत्परगुण-परदोषकीर्तने व्यापृतं मनो भवति ।
तावद्वरं विशुद्धे ध्याने व्यग्न मनःकर्तुम् ॥ अर्थात्-साधकवर ! जितने समय तुम्हारा यह मन दूसरों के गुण-दोषों की आलोचना एवं कीर्तन में प्रवृत्त रहता है, उतने समय तक यदि इसे शुद्ध ध्यान में एकाग्र कर दिया जाए तो कितना अच्छा हो !
सारांश निष्कर्ष यह है कि किसी भी साधक के विषय में सहसा मिथ्या धारणा बनाकर गलत अफवाहें फैलाना साधु के लिए सत्यमहाव्रत की दृष्टि से कथमपि उचित नहीं है।
मूलपाठ दक्खिणाए पडिलंभो, अत्थि वा पत्थि वा पुणो । ण वियागरेज्ज मेहावी, संतिमग्गं च बूहए ॥ ३२॥
संस्कृत छाया दक्षिणायाः प्रतिलम्भः अस्ति वा नास्ति वा पुनः । न व्यागृणीयान्मेधावी, शान्तिमार्ग च वर्धयेत् ॥ ३२ ।।
अन्वयार्थ (दक्षिणाए पडिलंभो अस्थि वा पुणो णत्थि वा मेहावी ण वियागरेज्ज) दक्षिणा
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