Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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पंचम अध्ययन : अनगारश्रुत-आचारश्रुत
३३७
तत्त्वार्थसूत्र में कहा है-समस्त जीवों के प्रति मैत्रीभाव, अपने से अधिक गुणसम्पन्न व्यक्तियों के प्रति प्रमोदभाव, क्लेश पाते हुए दुःखी जीवों के प्रति करुणाभाव एवं अविनेय प्राणियों के प्रति माध्यस्थ्य भाव रखना चाहिए । यहाँ सिंह-व्याघ्रादि पंचेन्द्रिय जीवों की घात करने वाले प्राणियों के प्रति माध्यस्थ्य भाव रखना आगमसम्मत है, संक्लेश पाते हुए दुःखी जीवों के प्रति नहीं । दुःखी जीवों पर करुणा एवं दया करना साधु का परम कर्तव्य है । अतः जो साधु मरते हुए प्राणी पर दया नहीं करता, और दया करके उसकी रक्षा का उपदेश देने में पाप समझता है, वह सम्यक्त्व के मूलगुणअनुकम्पा से रहित है। जो लोग टीका में प्रयुक्त ‘आदि' शब्द से साधु के अतिरिक्त सभी जीवों का ग्रहण करके उन्हें हिंसक मानते हैं, और मरते हुए, या मारे जाते हुए उन प्राणियों को भी सिंहव्याघ्रादि की तरह भयंकर हिंसक मानकर उनके प्रति माध्यस्थ भाव रखते हैं या रखने का उपदेश देते हैं, वे भयंकर भ्रम में हैं। यदि साधु के अतिरिक्त सभी प्राणी भयंकर हिंसक हैं, तो मैत्री, प्रमोद और करुणाभाव किस पर रखेंगे ? अतः इस गाथा में शास्त्रकार केवल साधु के लिए भाषासमिति का उपदेश देकर वाक्संयम रखने का उपदेश देते हैं।
मूल पाठ दीसंति समियायारा, भिक्खुणो साहुजीविणो। एए मिच्छोवजीवंति, इइ दिट्ठि न धारए ॥३१॥
संस्कृत छाया दृश्यन्ते समिताचाराः, भिक्षवः साधुजीविनः । एते मिथ्योपजीवन्ति, इति दृष्टि न धारयेत् ।। ३१ ।।
__ अन्वयार्थ (साहजीविणो समियायारा भिक्खुणो दीसंति) साधुतापूर्वक जीने वाले सम्यक्आचार का पालन करने वाले भिक्षाजीवी साधु दृष्टिगोचर होते हैं, इसलिए (एए मिच्छोवजीवंति) ये साधु लोग कपट से जीविका (जीवननिर्वाह) करते हैं, (इइ दिद्धि न धारए) ऐसी दृष्टि नहीं रखनी चाहिए।
व्याख्या
सुसाधु के विषय में मिथ्या कल्पना मत करो इस गाथा में शास्त्रकार यह बताते हैं कि सुसाधु के विषय में व्यर्थ ही दोषारोपण करके उसे मिथ्याचारी कहना या वैसी मिथ्या धारणा बना लेना साधक के लिए उचित नहीं है । जो साधु प्रशस्त विधि से जीवनयापन करते हैं, जो शास्त्रोक्त रीति से आत्मसंयम रखते हैं, संयम पालन करते हैं अथवा शास्त्रोक्त सम्यक् आचारसम्पन्न हैं निर्दोष भिक्षामात्रजीवी हैं तथा उत्तम ढंग से जीते हैं, ऐसे त्यागी, निस्पृह साधु-भिक्षु
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