Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
अभयकुमार ने भी अपने मित्र आर्द्र ककुमार के लिए रजोहरण, आसन, प्रमार्जनिका आदि धर्मोपकरण उस राजसेवक के साथ भेजे और उसे एकान्त में देने के लिए कह दिया । राजसेवक ने आर्द्र कपुर पहुँचकर अभयकुमार का सन्देश कहा और एकान्त में ले जाकर वे उपहाररूप धर्मोपकरण दिये । आर्द्र ककुमार ने जब वे उपकरण एकान्त में देखे तो उसे पूर्वजन्म का ज्ञान ( जातिस्मरणज्ञान ) उत्पन्न हुआ । वह वीतराग धर्म में प्रतिबुद्ध हुआ, तथा वह अभयकुमार से प्रत्यक्ष मिलने को उत्सुक हुआ । साथ ही आर्द्र कुमार का मन कामभोगों से विरत हो गया, उसकी इच्छा प्रव्रज्या ग्रहण करने की हो गई । पिता ने आर्द्र ककुमार की संसारविरक्ति के रंगढंग देखकर सोचा'कहीं यह भाग न जाए। अगर यहाँ से भारत देश को भाग गया तो फिर मेरे काबू में नहीं रहेगा ।' अतः उसने आर्द्र ककुमार के अपने देश से अन्यत्र भागने पर प्रतिबन्ध लगाने हेतु ५०० सशस्त्र सैनिक उसकी देखभाल के लिए नियुक्त कर दिये । फिर भी एक दिन मौका पाकर आर्द्र ककुमार उन सैनिकों की आँख बचाकर अश्वशाला में पहुँचा और वहाँ से एक सुन्दर घोड़ा लेकर नौ दो ग्यारह हो गया ।
अपने देश से भागकर वह भारत पहुँचा । वहाँ वह स्वयमेव आर्हत दीक्षा में प्रव्रजित होने लगा तो उसे रोकने के लिए आकाशवाणी हुई- 'तुम्हारे भोगावली कर्म अभी तक बाकी हैं । इसलिए अभी दीक्षा ग्रहण मत करो, अन्यथा तुम्हें वापस गृहस्थाश्रम में लौटना पड़ेगा ।' परन्तु आर्द्र क ने वैराग्य की उत्कटता के कारण इसे सुनी-अनसुनी करके साधु-दीक्षा ले ली ।
एक बार आर्द्रक भुनि वसन्तपुर नगर के रम्यक उद्यान में भिक्षु प्रतिमा अंगीकार करके कायोत्सर्ग में स्थित थे । प्रतिमा स्थित मुनि को देखकर अपनी समवयस्क सहेलियों के साथ क्रीड़ा करती हुई सेठ की लड़की श्रीमती ने कहा - "यह मेरा पति है ।" ऐसा कहते ही देव ने १२ ॥ करोड़ स्वर्णमुद्राओं की वृष्टि की । राजा उन स्वर्णमुद्राओं को ग्रहण करने लगा तो देव ने उसे रोककर कहा- ये स्वर्णमुद्राएँ इस बालिका की हैं । तब बालिका के पिता ने वे स्वर्णमुद्राएँ ले लीं । आर्द्रक मुनि इसे अनुकूल उपसर्ग जानकर वहाँ से अन्यत्र चले गये ।
इधर उस लड़की को वरण करने के लिए अनेक कुमार आने लगे, तब लड़को ने अपने पिता से साफ-साफ कह दिया- पिताजी ! इन कुमारों को वापस लौटा दें । मैं अपने पति के रूप में उन्हें स्वीकार कर चुकी हूँ, जिनका धन (स्वर्ण मुद्राएँ) आपने ग्रहण किया है ।
तत्पश्चात् आर्द्रकुमार का पता लगाने के लिए उक्त कन्या ने दानशाला प्रारम्भ की। वहाँ वह अनेक भिक्षुओं को दान दिया करती थी । एक दिन आर्द्रकमुनि उसी मार्ग से होकर जा रहे थे । श्रीमती उनके चरण देखकर पहचान गई कि यही मेरे पति हैं । तत्पश्चात् वह अपने परिवार को लेकर आर्द्रक मुनि के पीछे-पीछे गई ।
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