Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
दोनों का उदय होता है । तथा नारकीय जीवों में भी पंचेन्द्रियत्व और ज्ञान आदि का सद्भाव है, अत: वे भी एकान्त पापी नहीं है । इस प्रकार कथंचित् कल्याण और कथंचित् पाप भी अवश्य है, ऐसा अनेकान्तात्मक सिद्धान्त ही युक्तियुक्त मानना चाहिए |
सारांश
शास्त्रकार ने २३वीं गाथा से लेकर २८वीं गाथा तक चातुर्गतिक संसार, देवी-देव, सिद्धि - असिद्धि सिद्धि : निजस्थान, साधु असाधु एवं
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कल्याण- पाप का निषेध करने वालों के मत का निराकरण करके इन छहों गाथाओं में उक्त बातों के अस्तित्व को सत्य मानने पर जोर दिया है । वास्तव में सर्वज्ञ प्रतिपादित सिद्धान्त ठोस सत्य पर आधारित हैं, उन्हें मानने से इन्कार करना, अपने आपको मानने से इन्कार करना है ।
मूल पाठ
कल्ला पावए वावि, ववहारो ण विज्जइ ।
जं वेरं तं न जाणंति, समणा बालपंडिया ॥ २६ ॥ संस्कृत छाया
कल्याणः पापको वाऽपि व्यवहारो न विद्यते ।
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यद् वैरं तन्न जानन्ति, श्रमणा: बालपण्डिताः ॥ २६ ॥ अन्वयार्थ
( कल्लाणे पावए वावि ववहारो ण विज्जइ) यह पुरुष एकान्त कल्याणवान् है और यह एकान्त पापी है, ऐसा व्यवहार जगत् में नहीं होता है । ( बालपंडिया समणा जं वेरं तं न जाणंति) तथापि शाक्य आदि श्रमण, जो बालपंडित हैं, अर्थात् सत्-असत् - विवेक से रहित होते हुए भी अपने आपको पण्डित मानते हैं, वे एकान्त पक्ष के अवलम्बन से उत्पन्न होने वाले वैर को अर्थात् कर्मबन्धन को नहीं जानते हैं ।
व्याख्या
कोई एकान्त कल्याणकारी या पापी नहीं होता
यह पुरुष सर्वथा कल्याण ( अभीष्ट अर्थप्राप्ति) का भाजन है यानी एकान्त पुण्यवान् है और इससे विपरीत यह एकान्ततः पापी है, ऐसा व्यवहार लोक में नहीं है, क्योंकि कोई भी वस्तु जगत् में एकान्त नहीं है, किन्तु सर्वत्र अनेकान्त का सद्भाव है । ऐसी दशा में सभी पदार्थं कथञ्चित् कल्याणवान् और कथंचित् पापयुक्त हैं, यही बात सत्य माननी चाहिए । एकान्त एक पक्ष का आश्रय लेने से जो वैरबन्ध ( कर्मबन्ध ) होता है, उससे वे अन्यतीर्थी अनभिज्ञ है । इसलिए वे अहिंसाधर्म और अनेकान्त पक्ष का आश्रय नहीं लेते ।
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