Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
View full book text
________________
पंचम अध्ययन : अनगारश्रुत-आचारश्रुत
३२६
यदि पर्यायार्थिकनय की दृष्टि से सोचें तो यह संसार अनेकविध है, चतुर्विध नहीं । अतः संसार को चतुविध मानना भूल है । यह किसी का मत है । इन सब मान्यताओं का निराकरण करते हुए शास्त्रकार कहते हैं - 'अत्थि चाउरंते संसारे । ' अर्थात् संसार चार गति वाला है, यही मानना चाहिए। चार गति वाला नहीं है, ऐसी मान्यता नहीं रखनी चाहिए ।
यद्यपि नारक और देव हम जैसे परोक्षज्ञानियों को प्रत्यक्ष प्रतीत नहीं होते, तथापि अनुमान और आगम प्रमाण से उनकी सिद्धि और पुष्टि होती है । देव उत्कृष्ट पुण्यफल के भोक्ता और नारक निकृष्ट पापफल के भोक्ता होते हैं । सर्वज्ञ - प्रतिपादित आगम भी देवों और नारकों के अस्तित्व विधान करता है ।
अनुमान प्रमाण भी इसी प्रकार है - इस जगत् में पाप और पुण्य का मध्यम फल भोगने वाले तिर्यञ्च और मनुष्य प्रत्यक्ष देखे जाते हैं । इससे सिद्ध होता है कि पाप और पुण्य के उत्कृष्ट फल भोगने वाले भी कोई अवश्य हैं | जो पाप के उत्कृष्ट फल भोगने वाले हैं, वे नारकी हैं और जो पुण्य के उत्कृष्ट फल भोगने वाले हैं, वे देव हैं । तथा सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र एवं तारा आदि ज्योतिषी देव तो प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं । ग्रहों के द्वारा पीड़ा और वरदान आदि प्राप्त करना भी देवों के अस्तित्व में प्रमाण है | अतः देव और नारकीयों को न मानकर तिर्यञ्च और मनुष्यरूप दो ही गति मानना अयुक्त है । पर्यायनय की अपेक्षा से संसार को अनेक प्रकार का मानना भी ठीक नहीं है । क्योंकि नरक की ७ भूमियों में रहने वाले नारक जीव सबके सब एक ही नरकगति में समाविष्ट हो जाते हैं तथा पृथ्वीकाय आदि स्थावर तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च कुल मिलाकर ६२ लाख जीवयोनि वाले हैं, वे सभी एक ही तिर्यञ्चगति में समाविष्ट हो जाते हैं। क्योंकि उनका सामान्य धर्म तिर्यञ्चपन एक है। तथा कर्मभूमिज, कर्मभूमि, अन्तद्वीप और संमूर्च्छनरूप भेदों को मिलाकर समस्त मनुष्य एक ही प्रकार के हैं । इसी तरह भुवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक ये चारों प्रकार के देव भिन्न-भिन्न होते हुए भी सबका देवरूप से ग्रहण हो जाता है । इसलिए वे भी एक ही हैं । इस तरह सामान्य- विशेषरूप का आश्रय लेकर संसार को चार प्रकार का कहा गया है, उसे ही सत्य समझना चाहिए । संसार विचित्र है, इसलिए एक प्रकार का नहीं है । तथा नारकी आदि सभी जीव अपनी-अपनी जाति का उल्लंघन नहीं करते । इसलिए संसार अनेक प्रकार का भी नहीं है । संसार है, इसलिए मोक्ष भी है । क्योंकि समस्त पदार्थों का प्रतिपक्ष अवश्य होता है । इसलिए चातुर्गतिक संसार मानना ही युक्तियुक्त है ।
सिद्धि, असिद्धि और सिद्धिस्थान का निश्चय
२५वीं गाथा में सूत्रकार ने सिद्धि और असिद्धि का निर्णय किया है, तथा २६वीं गाथा में सिद्धि जीव का अपना स्थान है, इस मान्यता का समर्थन किया है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org