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सूत्रकृतांग सूत्र क्रिया और अक्रिया दोनों का अस्तित्व मानना
गमन, आगमन, परिस्पन्दन आदि व्यापार को क्रिया कहते हैं, और उसके अभाव को अक्रिया। इन दोनों का अस्तित्व अवश्य है। अत: इन दोनों के अस्तित्व से इन्कार करना मिथ्या है।
सांख्यमतवादी आत्मा को आकाश के समान व्यापक मानकर उसमें क्रिया का अस्तित्व नहीं मानते । वे आत्मा (पुरुष) को निष्क्रिय कहते हैं।
बौद्धमतवादी समस्त पदार्थों को क्षणिक मानकर उनमें उत्पत्ति के सिवाय अन्य किसी क्रिया को नहीं मानते। उनके ही शब्दों में देखिए
भूतिर्येषां क्रिया सैव कारकं सैव चोच्यते। अर्थात् -पदार्थों की जो उत्पत्ति है, वही उनकी क्रिया है, और वही उनका कर्तृत्व है। उनके मत में सभी पदार्थ प्रतिक्षण अवस्थान्तरित होते रहते हैं, इसलिए उनमें अक्रिया यानी क्रियारहित होना भी सम्भव नहीं । वास्तव में ये दोनों ही मत युक्तिसंगत नहीं हैं। क्योंकि आत्मा को आकाश की तरह व्यापक और निष्क्रिय मानने पर बन्ध-मोक्ष की व्यवस्था नहीं हो सकती । एवं वह (आत्मा) सुख-दुःख का भोक्ता भी सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिए आत्मा को आकाशवत् सर्वव्यापक मान कर उसमें क्रिया का अभाव मानना अयुक्त है।
___ इसी प्रकार समस्त पदार्थों को निरन्वय क्षणभंगुर मानकर उत्पत्ति के सिवाय उनमें अन्य क्रियाओं का अभाव मानना भी युक्तिविरुद्ध है, क्योंकि ऐसा मानने पर विश्व की दूसरी क्रियाएँ जो प्रत्यक्ष अनुभव की जा रही हैं, उनका कर्ता कौन होगा? तथा आत्मा में क्रिया का सर्वथा अभाव मानने पर बन्ध-मोक्ष की व्यवस्था नहीं होगी । अतः बुद्धिमान व्यक्ति को क्रिया और अक्रिया दोनों का अस्तित्व मानना चाहिए । यही १६वीं गाथा का निष्कर्ष है।
सारांश १३ से १९वीं गाथा तक में शास्त्रकार ने यह स्पष्ट संकेत कर दिया है कि जीव-अजीव, धर्म-अधर्म, बन्ध-मोक्ष, पुण्य-पाप, आश्रव-संवर, वेदना-निर्जरा, क्रिया-अक्रिया आदि १४ बातों के अस्तित्व से इन्कार करने की मान्यता ठीक नहीं है, इन १४ बातों के अस्तित्व का स्वीकार करना ही युक्तियुक्त मान्यता है। इन्हीं के स्वीकार से साधक अपने हिताहित का विचार करके आत्महित में संलग्न होता है।
मूल पाठ णत्थि कोहे व माणे वा, णेवं सन्न निवेसए। अत्थि कोहे व माणे वा, एवं सन्न निवेसए ॥२०॥
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