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पंचम अध्ययन : अनगारश्रुत-आचारश्रुत
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इस मत का निराकरण करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि आश्रव और संवर दोनों नहीं हैं, यह कथन ठीक नहीं है । बुद्धिमान पुरुष को आश्रव और संवर दोनों का अस्तित्व स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि संसारी आत्मा के साथ आश्रव न तो सर्वथा भिन्न है और न ही अभिन्न । किन्तु कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न मानना ही समीचीन है । इसलिए एकान्त एक पक्ष को लेकर जो आश्रव का खण्डन किया गया है, वह मिथ्या है ।
काया, वाणी और मन का जो शुभयोग है, वह पुण्याश्रव है तथा इनका अशुभयोग पापाश्रव है । तथा काया, वाणी और मन की गुप्ति संवर है । जब तक इस जीव का शरीर में अहंभाव है, तब तक कायिक, वाचिक और मानसिक योगों के साथ उसका सम्बन्ध अवश्य है । इसलिए आश्रव आत्मा से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न मानना ही उचित है । इसी प्रकार संवर का भी अस्तित्व मानना चाहिए । वेदना और निर्जरा के अस्तित्व का सम्यग्ज्ञान
कर्म के फल का अनुभव करना, भोगना वेदना कहलाती है, और आत्मप्रदेशों से कर्मप्रदेशों का झड़ जाना -क्षय हो जाना निर्जरा है । ये दोनों पदार्थ नहीं हैं, ऐसी कई मतवादियों की मान्यता है । वे कहते हैं कि सैकड़ों पल्योपम और सागरोपम-काल में भोगने योग्य कर्मों का भी अन्तर्मुहूर्त में ही क्षय हो जाता है । क्योंकि आचार्यों ने कहा है - " अज्ञानी पुरुष अनेक कोटि वर्षों में जिन कर्मों का क्षय करता है, तीन गुप्तियों से युक्त ज्ञानी उन्हें एक उच्छ्वासमात्र में नष्ट कर देता है ।" यह शास्त्रसम्मत सिद्धान्त है । तथा क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ साधु शीघ्र ही अपने कर्मों का क्षय कर डालता है । अतः क्रमशः बद्ध कर्मों का अनुभव न होने के कारण वेदना का अभाव सिद्ध होता है । और वेदना का अभाव सिद्ध हो जाने से निर्जरा का अभाव स्वतः सिद्ध है ।
विवेकी साधक को इस एकान्त मान्यता को नहीं मानना चाहिए । तपस्या और प्रदेशानुभव के द्वारा कुछ कर्मों का क्षय होता है; सभी कर्मों का नहीं । उनको तो उदीरणा और उदय के द्वारा अनुभव करना ही पड़ता है । वेदना का सद्भाव ( अस्तित्व ) अवश्य है, अभाव नहीं । इसके लिए आगम का पाठ भी साक्षी है"पुव्वि दुचिण्णाणं दुप्पडिक्कंताणं कम्माणं वेइत्ता मोक्खो, णत्थि अवेइसा "
अर्थात् पहले अपने द्वारा किये गये दुष्कर्मों (पापकर्मों), जो कि अत्यन्त दुष्कर ( दुष्प्रतीकार्य ) कर्म हैं, उनका वेदन ( फलभोग) करके ही मोक्ष होता है, अन्यथा नहीं होता । इस प्रकार वेदना की सिद्धि होने पर निर्जरा की सिद्धि तो अपने आप हो ही गई । इसलिए वेदना और निर्जरा दोनों का सद्भाव मानना अत्यावश्यक है । विवेकी साधक को वेदना और निर्जरा नहीं है, यह नहीं मानना चाहिए । यहीं १८वीं गाथा का आशय है ।
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