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________________ पंचम अध्ययन : अनगारश्रुत-आचारश्रुत ३२३ इस मत का निराकरण करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि आश्रव और संवर दोनों नहीं हैं, यह कथन ठीक नहीं है । बुद्धिमान पुरुष को आश्रव और संवर दोनों का अस्तित्व स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि संसारी आत्मा के साथ आश्रव न तो सर्वथा भिन्न है और न ही अभिन्न । किन्तु कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न मानना ही समीचीन है । इसलिए एकान्त एक पक्ष को लेकर जो आश्रव का खण्डन किया गया है, वह मिथ्या है । काया, वाणी और मन का जो शुभयोग है, वह पुण्याश्रव है तथा इनका अशुभयोग पापाश्रव है । तथा काया, वाणी और मन की गुप्ति संवर है । जब तक इस जीव का शरीर में अहंभाव है, तब तक कायिक, वाचिक और मानसिक योगों के साथ उसका सम्बन्ध अवश्य है । इसलिए आश्रव आत्मा से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न मानना ही उचित है । इसी प्रकार संवर का भी अस्तित्व मानना चाहिए । वेदना और निर्जरा के अस्तित्व का सम्यग्ज्ञान कर्म के फल का अनुभव करना, भोगना वेदना कहलाती है, और आत्मप्रदेशों से कर्मप्रदेशों का झड़ जाना -क्षय हो जाना निर्जरा है । ये दोनों पदार्थ नहीं हैं, ऐसी कई मतवादियों की मान्यता है । वे कहते हैं कि सैकड़ों पल्योपम और सागरोपम-काल में भोगने योग्य कर्मों का भी अन्तर्मुहूर्त में ही क्षय हो जाता है । क्योंकि आचार्यों ने कहा है - " अज्ञानी पुरुष अनेक कोटि वर्षों में जिन कर्मों का क्षय करता है, तीन गुप्तियों से युक्त ज्ञानी उन्हें एक उच्छ्वासमात्र में नष्ट कर देता है ।" यह शास्त्रसम्मत सिद्धान्त है । तथा क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ साधु शीघ्र ही अपने कर्मों का क्षय कर डालता है । अतः क्रमशः बद्ध कर्मों का अनुभव न होने के कारण वेदना का अभाव सिद्ध होता है । और वेदना का अभाव सिद्ध हो जाने से निर्जरा का अभाव स्वतः सिद्ध है । विवेकी साधक को इस एकान्त मान्यता को नहीं मानना चाहिए । तपस्या और प्रदेशानुभव के द्वारा कुछ कर्मों का क्षय होता है; सभी कर्मों का नहीं । उनको तो उदीरणा और उदय के द्वारा अनुभव करना ही पड़ता है । वेदना का सद्भाव ( अस्तित्व ) अवश्य है, अभाव नहीं । इसके लिए आगम का पाठ भी साक्षी है"पुव्वि दुचिण्णाणं दुप्पडिक्कंताणं कम्माणं वेइत्ता मोक्खो, णत्थि अवेइसा " अर्थात् पहले अपने द्वारा किये गये दुष्कर्मों (पापकर्मों), जो कि अत्यन्त दुष्कर ( दुष्प्रतीकार्य ) कर्म हैं, उनका वेदन ( फलभोग) करके ही मोक्ष होता है, अन्यथा नहीं होता । इस प्रकार वेदना की सिद्धि होने पर निर्जरा की सिद्धि तो अपने आप हो ही गई । इसलिए वेदना और निर्जरा दोनों का सद्भाव मानना अत्यावश्यक है । विवेकी साधक को वेदना और निर्जरा नहीं है, यह नहीं मानना चाहिए । यहीं १८वीं गाथा का आशय है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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