Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
उपर्युक्त समस्त मान्यताओं को मिथ्या सिद्ध करते हुए शास्त्रकार कहते हैंपुण्य और पाप नहीं हैं, ऐसा नहीं मानना चाहिए, बल्कि यह मानना चाहिए, कि पुण्य भी है और पाप भी है। जो लोग पाप को मानकर पुण्य का खण्डन करते हैं, अथवा जो पुण्य को मानकर पाप का खण्डन करते हैं, वे दोनों ही वस्तुतत्त्व को नहीं जानते, क्योंकि पुण्य और पाप दोनों का परस्पर नियत सम्बन्ध है। जो एक का अस्तित्व स्वीकार करता है, उसे दूसरे का अस्तित्व स्वीकार करना ही होगा । अतः पुण्य के होने पर पाप या पाप के होने पर पुण्य स्वतः सिद्ध हो जाता है। अतः दोनों को ही मानना चाहिए ।
जो लोग नियति या स्वभाव से जगत् की विचित्रता मानकर, पुण्य और पाप दोनों का ही खण्डन करते हैं, वे भी भ्रम में हैं, क्योंकि स्वभाव या नियति से जगत् की विचित्रता मानने पर तो जगत् की समस्त कियाएँ निरर्थक सिद्ध होंगी। जब सब कुछ नियति या स्वभाव से ही होने लगेगा, तब फिर क्यों कोई शुद्ध क्रिया करेगा या सत्कार्य में प्रवृत्त होगा ? अशुभ क्रिया का भी कोई फल प्राप्त नहीं होगा। इस प्रकार शुभाशुभ क्रिया का फल चौपट हो जायेगा। सब कुछ स्वभाव या नियति से ही होने लगेगा। पर ऐसा होता नहीं है। अतः पुण्य और पाप को न मानना उचित नहीं है। यह १६वीं गाथा का निष्कर्ष है। आश्रव और संवर के अस्तित्व को यथार्थता
जिसके द्वारा आत्मा में कर्म आते हैं-प्रवेश करते हैं, वह आश्रव कहलाता है । वह प्राणातिपात आदि है और उस आश्रव का निरोध करना संवर कहलाता है । ये दोनों पदार्थ भी अवश्यम्भावी हैं, यही मानना अभीष्ट है, शास्त्रसम्मत है । इसके विपरीत इन दोनों के अस्तित्व का निषेध करना उचित नहीं है। किसी मतवादी का कथन है कि यह तथाकथित आश्रव आत्मा से भिन्न है या अभिन्न ? यदि वह आत्मा से भिन्न है तो वह आश्रव नहीं हो सकता, क्योंकि जैसे आत्मा से भिन्न घट-पट आदि पदार्थ हैं, वे आत्मा के लिए कुछ नहीं कर सकते, वैसे ही आश्रव आत्मा से सर्वथा भिन्न होने से आत्मा में कर्म का प्रवेश नहीं करा सकता । अथवा जैसे घट-पटादि पदार्थों द्वारा आत्मा में कर्म का प्रवेश नहीं हो सकता, वैसे ही आश्रव द्वारा आत्मा में कम का प्रवेश नहीं हो सकेगा। यदि आश्रव को आत्मा से अभिन्न मानें, तो मुक्तात्माओं में भी आश्रव मानना पड़ेगा। आश्रव को आत्मा से अभिन्न मानने पर वह आत्मा का स्वरूप हो जायेगा, ऐसी स्थिति में मुक्तात्माओं में उपयोग की सत्ता की तरह आश्रव की सत्ता भी माननी पड़ेगी, जो अभीष्ट नहीं है। अतः आश्रव की कल्पना मिथ्या है। जब आश्रव का अस्तित्व सिद्ध नहीं हुआ तो उस आश्रव का निरोधरूप संवर भी नहीं माना जा सकता। इस प्रकार आश्रव और संवर दोनों ही नहीं हैं, यह किसी का मत है।
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