Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
View full book text
________________
८४
सूत्रकृतांग सूत्र
बन जाते हैं, मेरे देखते ही देखते ये पराये हो जाते हैं, मेरे मर जाने पर और अन्य लोक में चले जाने पर भी यहीं धरे रह जाएँगे। जब मैं अपने अशुभकर्मवश किसी रोग या दुःख से आक्रान्त होता हूँ, तब ये मेरी रक्षा नहीं करते। इसलिए ममत्वरूप से या इन पर स्वामित्व स्थापित करके इन्हें ग्रहण करना मेरे लिए कथमपि उचित नहीं है । वास्तव में ये काम-भोग के साधन सुख-प्रदायक नहीं हैं। इनके कारण हृदय में अशान्ति और बेचैनी रहती है, बुद्धि में चंचलता और चिन्ता रहती है, मन में विपरीत मनन-चिन्तन होता है। ये मुझे अपने शुद्ध चिदानन्दस्वरूप की ओर झाँकने ही नहीं देते। मैं अगर इन पर ममत्व या स्वामित्व स्थापित करू तो मेरे जीवन का अमूल्य समय, मेरी आत्मसाधना के बहुमूल्य क्षण इनकी ही रक्षा, सार-संभाल और वृद्धि में लगने लगेगा। इस प्रकार इन पर ही अपना अमूल्य समय और अनुपम शक्ति का व्यय करके मैं बदले में पाऊँगा क्या? अशान्ति, व्याकुलता और आत्मविराधना ही तो मिलेगी, मुझे इनकी सेवा करने से। ये मुझे लेशमात्र भी शान्ति प्रदान नहीं कर सकते । अतएव इन्हें ग्रहण न करना एवं इन्हें अपना न मानना ही मेरे लिए श्रेयस्कर है। मैं इनका त्याग कर दूंगा----सर्वथा मन वचन काया से परित्याग कर दूंगा।'
इससे से भी आगे बढ़कर मेधावी साधक यह चिन्तन करता है कि 'ये खेत, मकान आदि काम-भोग के साधन तो मुझसे सर्वथा भिन्न हैं हो, किन्तु इन पदार्थों से भी जो अधिक समीपवर्ती हैं, जिनसे प्रायः रक्त का सम्बन्ध होता है, या जो धनिक या निर्धन सभी मनुष्यों के रात-दिन अधिक सम्पर्क में आते हैं, जो अन्तरंग हैं, ज्ञातिजन हैं, जिनकी अपेक्षा से खेत, मकान आदि काम-भोग के साधन तो बहिरंग हैं, उन पर भी मुझे ममत्व करना उचित नहीं है।'
अज्ञानीजन सोचता है-'यह मेरी माता है, ये मेरे पिता हैं, ये भाई हैं, यह मेरी बहन है, पत्नी है, ये मेरे पुत्र, नाती, पुत्रियाँ, पत्रवधुएँ हैं, ये मेरे मित्र हैं, ये नौकरचाकर हैं, ये मेरे प्रियजन (आगे-पीछे के परिचित एवं सम्बन्धी) हैं, ये स्वजन (पूर्वापरपरिचित माता-पिता आदि, सग्रन्थ अर्थात् बाद के सम्बन्धी जैसे श्वसुर, साले आदि और संस्तुत यानी सामान्य रूप से परिचित) हैं। ये मेरे ज्ञातिजन हैं और मैं इनका हूँ। खेत, धन आदि की अपेक्षा ये अन्तरंग हैं।' किन्तु सद्-असद्-विवेकसम्पन्न साधक इन ज्ञातिजनों के सम्बन्ध में पहले से ही पक्का विचार कर लेता है कि कदाचित् मुझे किसी प्रकार का दुःख या रोगातक हो जाय जो कि मेरे लिए अत्यन्त अनिष्ट, अप्रिय, अमनोज्ञ, अमनोहर, दुःखरूप या असुखरूप हो तो क्या ये माता-पिता आदि ज्ञातिजन उस दुःख या रोगातंक से मेरी रक्षा कर सकेंगे ? नहीं, कदापि नहीं। मान लो, अगर किसी विपत्ति या रोगादि के दुःख के समय मैं उन माता आदि ज्ञाति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org