Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सुत्र
अन्वयार्थ (अहावरे णवमे किरियट्ठाणे माणवत्तिएत्ति आहिज्जइ) इसके पश्चात् नौवाँ क्रियास्थान है, जिसे मानप्रत्ययिक कहते हैं। (से जहाणामए केइ पुरिसे जातिमएण वा, कुलमएण वा, बलमएण वा, रूवमएण वा, तवोमएण वा, सुयमएण वा, लाभमएण वा, इस्सरियमएण वा, पनामएण वा, अन्नयरेण वा, मयट्ठाणेणं मत्ते समाणे परं हीलेइ निदेइ, खिसइ, गरहइ, परिभवइ, अवमण्णेइ) जैसे कोई व्यक्ति जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, तपोमद, शास्त्रज्ञानमद, लाभमद, ऐश्वर्यमद, बुद्धिमद, आदि में से किसी एक मद से मत्त होकर दूसरे व्यक्ति की अवहेलना करता है, निन्दा करता है, घृणा करता है, गर्दा करता है, अपमान करता है, तिरस्कार करता है, (इत्तरिए अयं अहमंसि पुण विसिष्ठजाइकुलबलाइगुणोववेए) वह समझता है--'यह दूसरा व्यक्ति हीन है, मैं एक विशिष्ट व्यक्ति हूँ, मैं उत्तम जाति, कुल, बलादि गुणों से युक्त हूँ।' (एवं अप्पाणं समुक्कसे) इस प्रकार वह अपने आपको उत्कृष्ट मानता हुआ गर्व करता है। (देहच्चुए कम्मबितिए अवसे पयाइ) वह अभिमानी आयु पूरी होने पर शरीर को छोड़कर कर्ममात्र को साथ लेकर विवशतापूर्वक परलोक में जाता है। (गम्भाओ गम्भं, जम्माओ जम्म, माराओ मार, णरगाओ णरगं) वह एक गर्भ से दूसरे गर्भ में, एक जन्म से दूसरे जन्म में, एक मरण से दूसरे मरण में, एक नरक से दूसरे नरक में जाता है। (चंडे थद्ध चवले माणियावि भवइ) वह परलोक में भयंकर, नम्रता रहित, चंचल और अभिमानी भी होता है। (एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जति आहिज्जइ) इस प्रकार वह व्यक्ति उक्त अभिमान (मद) से उत्पन्न सावध (पाप) कर्म का बन्ध करता है। (णवमे किरियट्ठाणे माणवत्तिएत्ति आहिए) इस प्रकार नौवें मानप्रत्यधिक क्रियास्थान का स्वरूप बताया गया है ।
व्याख्या
नौवाँ क्रियास्थान : मानप्रत्ययिक
इस सूत्र में नौवें क्रियास्थान का निरूपण किया गया है। इसका नाम मानप्रत्ययिक है। इसका स्वरूप इस प्रकार है-जो पुरुष जाति, कुल, बल, रूप, तप, शास्त्रज्ञान, लाभ, ऐश्वर्य और प्रज्ञा के मद से मत्त होकर दूसरों को अपने से हीन-तुच्छ समझता है और अपने आप को जाति, कुल आदि में श्रेष्ठ समझता है। इन मदों में से किसी न किसी मद से मत्त होकर वह दूसरों का तिरस्कार एवं अपमान करता है, दूसरों से घृणा करता है, द्वष करता है और ईर्ष्या भी करता है। इस प्रकार का अभिमानी व्यक्ति इस लोक में निन्दा का पात्र होता है और परलोक में भी उसकी दशा बुरी होती है । इस पापकर्मबन्ध के कारण वह बार-बार गर्भ में आता है, जन्म लेता
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