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चतुर्थ अध्ययन : प्रत्याख्यान-क्रिया
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है । आचार्यश्री इस शंका का समाधान करने के लिए कहते हैं-जो प्राणी जिस प्राणी की हिंसा आदि पापों से निवृत्त नहीं है, वह उन पापों में प्रवृत्त ही कहा जाएगा। क्योंकि उसकी चित्तवृत्ति उस प्राणी के प्रति सदा हिंसक ही बनी रहती है, अथवा उसकी वृत्ति उन पापों के प्रति रत रहती है, इसलिए वह हिंसक या पापकर्मा ही है, अहिंसक या पापकर्म रहित नहीं है। जैसे कोई ग्राम का घात करने वाला पुरुष जिस समय ग्राम का घात करने में प्रवृत्त होता है, उस समय जो प्राणी उस ग्राम को छोड़कर किसी दूसरी जगह चले गये हैं, उनका घात उसके द्वारा नहीं होता, तो भी वह घातक पुरुष उन प्राणियों का अघातक या उनके प्रति हिंसात्मक चित्तवृत्ति न रखने वाला नहीं है, क्योंकि उसकी इच्छा उन प्राणियों के घात की ही है, अर्थात् वह उन्हें भी मारना ही चाहता है, परन्तु वे उस समय वहाँ उपस्थित नहीं हैं, इसलिए नहीं मारे जाते। इसी तरह जो प्राणी देश-काल से दूर के प्राणियों के घात का त्यागी नहीं है, वह उनका भी हिंसक ही है और उसकी चित्तवृत्ति उनके प्रति भी हिंसात्मक ही है। इसलिए पहले जो कहा गया था कि अप्रत्याख्यानी प्राणी समस्त प्राणियों के हिंसक हैं, या सर्वपापों में लिप्त हैं, वह युक्तिसंगत एवं यथार्थ ही है। इस सम्बन्ध में शास्त्रकार ने भगवान् द्वारा प्रतिपादित दो दृष्टान्त प्रस्तुत किये है—एक संज्ञी का, दूसरा असंज्ञी का। उनका आशय यह है कि जिस पुरुष ने एकमात्र पृथ्वीकाय से अपना कार्य करने का निश्चित करके, शेष अन्य प्रकार के प्राणियों के आरम्भ का त्याग कर दिया है, वह पुरुष देशकाल से दूरवर्ती समग्र पृथ्वीकाय का हिंसक ही है, अहिंसक नहीं। उसे पूछने पर वह यही कहता है कि मैं पृथ्वीकाय का आरम्भ करता हूँ और कराता हूँ तथा करने वाले का अनुमोदन करता हूँ, परन्तु वह यह नहीं कह सकता कि मैं पीले, लाल या सफेद पृथ्वीकाय का आरम्भ करता हूँ, शेष पृथ्वीकाय का नहीं; क्योंकि उसने किसी भी पृथ्वीविशेष (नीली, काली आदि) का त्याग (प्रत्याख्यान) नहीं किया है । इसलिए आवश्यकता न होने से या दूरता आदि के कारण वह जिस पृथ्वी का आरम्भ नहीं करता, उसका भी अनारम्भक या अघातक नहीं कहा जा सकता; तथा उस (अवशिष्ट) पृथ्वीकाय के प्रति उसकी चित्तवृत्ति अहिंसात्मक नहीं कही जा सकती, क्योंकि वह हिंसा से निवृत्त नहीं हुआ है। इसी तरह अन्य समस्त काय (जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय एवं त्रसकाय) के प्राणियों की हिंसा का जिसने प्रत्याख्यान (त्याग) नहीं किया है, उसे भी देश-काल से दूरवर्ती प्राणियों की हिंसा करने का अवसर किसी कारणवश नहीं मिला, एतावता उसे उन-उन प्राणियों के प्रति अहिंसक या अघातक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसकी चित्तवृत्ति उनके प्रति हिंसात्मक ही है, मौका मिलने पर उनकी हिंसा कर भी सकता है। इसी प्रकार हिंसा की तरह अन्य पापों के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए, जिसने १८ ही पापों का त्याग नहीं किया है, वह १८ ही पापों का कर्ता समझा जाएगा, चाहे वह उन
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