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सूत्रकृतांग सूत्र
मेरी तरह ही उस समय दुःख, भय एवं परिताप का अनुभव करते हैं, यह जानकर मुझे किसी भी प्राणी को न मारना-पीटना चाहिए, न सताना चाहिए, न डराना-धमकाना चाहिए, न उन पर जबर्दस्ती शासन करना चाहिए, न उन्हें गुलाम बनाकर रखना चाहिए, न उनके अन्न-पानी आदि में अन्तराय डालना चाहिए तथा न विष शस्त्र आदि द्वारा मारना चाहिए, यहाँ तक कि किसी प्राणी के प्राणों को मेरे निमित्त से जरा भी कष्ट पहुंचे, ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए।
यह अहिंसाधर्म ही ध्र व (अटल) है, अपरिवर्तनीय है, नित्य है, शाश्वत है, सदा के लिए है। लोक के स्वभाव एवं स्वरूप को जानकर प्राणियों की पीड़ा को जानने वाले तीर्थंकरों ने यह धर्म बताया है।
इस प्रकार का चिन्तनशील व्यक्ति किसी प्राणी को कष्ट नहीं देता, समस्त जीवों को दुःख देने का वह त्याग करता है, वही पुरुष अहिंसक तथा संयमी होता है।
_ऐसा भिक्षु प्राणातिपात (हिंसा) से लेकर मिथ्यादर्शनशल्यपर्यन्त समरत पापों से विरत होता है । वही संयत, विरत, पापकर्म-प्रतिघाती एवं पापप्रत्याख्यानी कहलाता है।
... ऐसे साधु की प्रत्येक चर्या अहिंसा, सत्य, अचौयं, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, क्षमा, दया, शील, सेवा, सन्तोष आदि से अनुप्राणित होती है। वह शोभा के लिए शरीर के किसी भी अंग का प्रसाधन नहीं करता। उसकी दृष्टि शरीराभिमुखी न होकर आत्माभिमुखी होती है ।
उक्त गुणों से सम्पत्र भिक्षु सावधक्रियाओं से सदैव दूर रहता है, वह हिंसा, असत्य आदि कुत्सित प्रवृत्तियों से निवृत्त होता है, क्रोधादि कषायों पर विजय पा लेता है, वह उपशान्त एवं परिनिवृत्त (सब पापों से रहित) होता है। ऐसे ही उत्तम साधक को भगवान ने संयत, विरत, पापप्रतिघाती पापप्रत्याख्यानी, अक्रिय, संवृत एवं एकान्तपण्डित कहा है । श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य से कहते हैं-जो भगवान् ने कहा है, वही मैं कहता हूँ।
इस प्रकार श्री सूत्रकृतांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध का प्रत्याख्यानक्रिया नामक चतुर्थ अध्ययन अमरसुखबोधिनी व्याख्या सहित सम्पूर्ण हुआ।
॥ प्रत्याख्यान-क्रिया नामक चतुर्थ अध्ययन समाप्त ॥
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