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पंचम अध्ययन : अनगारथ त-आचारश्रुत
यहाँ इन दोनों प्रकार के एकान्तमय विधि-निषेधात्मक वचनों के कथन का निषेध इसलिए किया गया है कि ये दोनों बातें व्यवहार से विरुद्ध हैं । यह प्रत्यक्ष अनुभव किया जाता है कि पदार्थों की शक्ति एक दूसरे से भिन्न है । इसके अतिरिक्त सुख-दुःख, जीवन-मरण, दूरी-निकटता, सुरूपता-कुरूपता आदि पदार्थों की विचित्रताएँ भी पृथक-पृथक नजर आती हैं। तथा कोई पापी है तो कोई पुण्यवान है, कोई पुण्यफल भोग रहा है तो कोई पापफल भोग रहा है । इसलिए सभी पदार्थों को सर्वात्मक, सर्वरूप और सभी में सबकी शक्ति का सद्भाव नहीं माना जा सकता । सांख्यमतवादी स्वयं सत्त्व, रज और तम को एक स्वरूप नहीं, भिन्न-भिन्न मानते हैं। सभी पदार्थ यदि सर्वात्मक है तो सत्त्व, रज एवं तम भी परस्पर अभिन्न होने चाहिए । परन्तु सांख्यवादी ऐसा नहीं मानते । दूसरी बात, यदि सभी सर्वात्मक हों तो जन्म-मरण, सुख-दु:ख, बन्ध-मोक्ष आदि की लौकिक और शास्त्रीय व्यवस्थाएँ, जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती, सिद्ध नहीं होती। इस कारण एकान्त अभेदपक्ष यथार्थ नहीं है। एकान्त भेद पक्ष में भी यही दोष आता है।
वस्तुतः सभी पदार्थ सत्ता रखते हैं, सभी ज्ञय हैं, सभी प्रमेय है, इसलिए सत्ता, ज्ञयत्व एवं प्रमेयत्वरूप सामान्यधर्म की दृष्टि से सभी पदार्थ कथंचित् एक भी हैं । तथा सबके कार्य, गुण, स्वभाव और नाम आदि भिन्न-भिन्न हैं, इसलिए सभी पदार्थ परस्पर कथंचित् भिन्न भी हैं । इस प्रकार अनेकान्तात्मक वचन कहना ही विवेकी साधक का कर्तव्य है । दोनों एकान्तों का सेवन करना अनाचार है ।
सारांश औदारिक आदि पांचों शरीर एक देश-काल में उपलब्ध होते हैं, इसलिए परस्पर अभिन्न ही हैं अथवा इन पांचों के कारणों में भिन्नता होने से ये परस्पर सर्वथा भिन्न ही हैं, ऐसे एकान्त कथन नहीं करने चाहिए । तथा सभी पदार्थों में सबकी शक्ति विद्यमान है, अथवा नहीं है, ऐसा एकान्त वचन कहना भी ठीक नहीं । दोनों एकान्तों से व्यवहार नहीं चलता. इसलिए सर्वथा भिन्न या अभिन्न कहना अनाचार है।
मूल पाठ णत्थि लोए अलोए वा, णेवं सन्न निवेसए। अस्थि लोए अलोए वा, एवं सन्न निवेसए ॥१२॥
संस्कृत छाया नास्ति लोकोऽलोकश्च, नैवं संज्ञां निवेशयेत् । अस्ति लोकोऽलोको वा, एवं संज्ञां निवेशयेत् ।। १२ ।।
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