Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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पंचम अध्ययन : अनगारश्रुत-आचारश्रुत
३०६
चाहिए। दोनों के एकान्त कथन से व्यवहार नहीं चलता और इसलिए यह एकान्त कथन तीर्थंकरों की दृष्टि में अनाचार है ।
मूल पाठ आहाकम्माणि भुंजंति, अण्णमण्णे सकम्मुणा 1 उवलितेति जाणिज्जा, अणुवलित्तेति वा पुणो ॥८॥ एएहि दोहि ठाणेह ववहारो ण विज्जइ । एएहि दोहि ठाणेहिं अणायारं तु जाणए ॥ ॥ संस्कृत छाया
आधाकर्माणि भुजंते, अन्योऽन्यं स्वकर्मणा । उपलितानिति जानीयादनुपलिप्तानिति वा पुनः ॥ ८ ॥ आभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यां व्यवहारो न विद्यते । आभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यां अनाचारं तु जानीयात् ॥ ६ ॥ अन्वयार्थ
( आहाकम्माणि भुजंति) जो साधु आधाकर्मदोषयुक्त (साधु के लिए षट्काय का उपमर्दन करके तैयार किये हुए) आहार- पानी का सेवन करते हैं, (अण्णमण्णे सकम्मुण्णा उवलितेति) वे परस्पर अपने पापकर्म से उअलिप्त होते हैं ( अणुवलित्तेति वा पुणो ) अथवा वे उपलिप्त नहीं भी होते हैं, ( जाणिज्जा) ऐसा जानना चाहिए ॥ ८ ॥
(एएहिं दोहि ठाणे ववहारो ण विज्जइ) क्योंकि इन दोनों एकान्त वचनों से व्यवहार नहीं होता, (एएहिं दोहिं ठाणेह अणायारं तु जाणए) अतः इन दोनों एकान्त वचनों को कहना अनाचार - सेवन जानना चाहिए || ६ ||
व्याख्या
आधा कर्मदोषी साधु : उपलिप्त या अनुलिप्त ? मुनि को दान देने के उद्देश्य से जो भी भोजन, पानी, वस्त्र, मकान आदि बनाये जाते हैं, वे आधाकर्मिक कहलाते हैं । ऐसे आधाकर्मदोषयुक्त आहार आदि का सेवन करने वाला साधु कर्म से लिप्त होता ही है, ऐसा एकान्त वचन नहीं कहना चाहिए, क्योंकि आधाकर्मी आहार का सेवन भी शास्त्रीय विधि के अनुसार अपवादमार्ग में कर्मबन्ध का कारण नहीं होता, मगर शास्त्रीय विधि का उल्लंघन करके आहारादि पर वृद्धि - आसक्ति की दृष्टि से ओ आधाकर्मी आहारादि लिया जाता है, वही कर्मबन्ध का कारण होता है । इस सम्बन्ध में आचार्यों का चिन्तन इस प्रकार का है
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