Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र किञ्चिच्छुद्धं कल्प्यमकल्प्यं वा स्यादकल्प्यमपि कल्प्यम्।
पिण्ड: शय्या वस्त्र पात्र वा भेषजाद्य वा ।। अर्थात्-किसी अवस्था विशेष में शुद्ध और कल्पनीय भी पिण्ड, शय्या, वस्त्र, पात्र और भेषज आदि अशुद्ध तथा अकल्पनीय हो जाते हैं, और ये ही अशुद्ध एवं अकल्पनीय पिण्ड आदि भी किसी अवस्थाविशेष में शुद्ध एवं कल्पनीय हो जाते हैं। इसी कारण यह भी कहा है
उत्पद्यत हि सावस्था देशकालामयान् प्रति ।
यस्याम कार्य कार्य स्यात् कर्म कार्य च वर्जयेत् ॥ अर्थात् - मनुष्य की कभी ऐसी भी अवस्था हो जाती है, जिसमें न करने योग्य कार्य भी कर्तव्य और करने योग्य कार्य भी अकर्तव्य हो जाता है । अतः किसी देशविशेष या काल विशेष में अथवा किसी अवस्थाविशेष में शुद्ध आहार न मिलने पर आहार के अभाव में अनर्थ पैदा हो सकता है क्योंकि वैसी दशा में साधु क्षुधा-पिपासा से पीड़ित होने पर ईर्यापथ का शोधन भी भलीभाँति नहीं कर सकता है, तथा उक्त साधु से चलते समय जीवों का उपमर्दन भी संभव है। अगर वह क्षुधा-पिपासा या रोग की पीड़ा से मूच्छित होकर गिर पड़े तो वस-जीवों की विराधना भी अवश्यम्भावी है। तथा ऐसी स्थिति में यदि वह अकाल में ही काल का ग्रास बन जाये तो संयम या विरति का नाश हो सकता है तथा आर्तध्यान होने पर उसकी दुर्गति भी हो सकती है। इसलिए आगम में स्पष्ट विधान किया है ---
सव्वत्थ संजमं संजमाओ अप्पाणमेव रक्खेज्जा : __ “साधक को हर हालत में किसी भी मूल्य पर संयम की रक्षा करनी चाहिए। सयम से भी बढ़कर (संयम-पालन के साधनभूत अपने) शरीर की रक्षा करनी चाहिए ।" इसलिए आधाकर्मी आहारादि का सेवन पापकर्म का ही कारण है, ऐसा एकान्तरूप से कथन नहीं करना चाहिए तथैव आधाकर्मी आहार आदि के सेवन से पापकर्म का बन्ध होता ही नहीं, ऐसा एकान्त वचन भी नहीं कहना चाहिए । कारण, आधाकर्मी आहार आदि के बनाने में प्रत्यक्ष ही षट्कायिक जीवों की विराधना होती है। अतः षट्कायिक जीवों की विराधना से पापकर्म का बन्ध अनिवार्य है। इसलिए आधाकर्मयुक्त पदार्थों का सेवन पापकर्म न होने का कथन भी अनाचार है। वस्तुतः आधाकर्मी आहारादि-सेवन से कथंचित् पापबन्ध होता है और कथाचित् नहीं भी होता है, यह अनेकान्तात्मक वचन ही जैन-आचार-सम्मत समझना चाहिए।
सारांश जो साधु आधार्मिक आहारादि का सेवन करते हैं, वे पापकर्म से लिप्त होते ही हैं अथवा सर्वथा पापकर्म से लिप्त नहीं होते, ऐसे दोनों प्रकार के एकान्त वचन नहीं कहने चाहिए। क्योंकि इन दोनों एकान्त वचनों से
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