Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
View full book text
________________
२६२
सूत्रकृतांग सूत्र अथवा कभी संज्ञी के शरीर से संज्ञी के शरीर में भी पुनः आ जाते हैं । (असन्निकायाओ वा असन्निकायं संकमंति) अथवा कदाचित् असंज्ञीकाय से भी पुनः असंज्ञीकाय में ही आ जाते हैं । (जे एए सन्नि वा असन्नि वा सव्वे ते मिच्छायारा निच्चं पसढविउवायचित्तदंडा) ये जो संज्ञी अथवा असंज्ञी प्राणी होते हैं, वे सभी मिथ्याचारी होते हैं और सदैव शठतापूर्वक हिंसात्मक चित्तवृत्ति धारण करते हैं । (तं जहा-पाणाइवाए जाव मिच्छादसण सल्ले) अतएव वे इस प्रकार प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह ही प्रकार के पापों का सेवन करते हैं । (एवं खलु भगवया अक्खाए असंजए अविरए अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतवंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते) इसी कारण से ही तो भगवान महावीर ने इन्हें असंयत, अविरत, क्रियायुक्त, पापों का प्रतिघात (नाश) और प्रत्याख्यान न करने वाले, संवररहित, एकान्त हिंसापरायण, एकान्त (सर्वथा) बाल -अज्ञानी, एवं बिलकुल सुप्त कहा है । (से बाले अवियारमणवयणकायवक्के सुविणमवि ण पासइ, से य पावे कम्मे कज्जइ) वह अज्ञानी जीव चाहे मन, वचन, काया, एवं वाक्य के प्रयोग में विचार (सूझबूझ) से रहित हो, तथा स्वप्न भी न देवता हो, यानी बिलकूल अव्यक्त चेतना (विज्ञान) से युक्त हो, फिर भी वह पापकर्म करता है।
व्याख्या
संज्ञी एवं असंज्ञी दोनों प्रकार के अप्रत्याख्यानी प्राणी सदैव सर्वपापरत
पूर्वसूत्र में प्रश्नकर्ता ने अव्यक्त चेतनाशील, अस्पष्टविज्ञानयुक्त एवं अज्ञात, अपरिचित प्राणी कैसे सब प्राणियों के शत्रु हो सकते हैं, इत्यादि जो तर्क प्रस्तुत किया था, उसका प्रतिवाद करने एवं प्रत्युत्तर देने हेतु आचार्यश्री कहते हैं- मूल बात यह है कि जिस जीव ने प्राणियों की हिंसा आदि पापों का प्रत्याख्यान (त्याग) नहीं किया है, जो हिंसा आदि पापों से विरत नहीं है, वह चाहे किसी भी गति, योनि एवं शरीर में हो, सदैव प्राणिहिंसा आदि पापों का कर्ता ही कहलाएगा क्योंकि उसकी चित्तवृत्ति में सदैव हिंसा आदि पापों की वृत्ति बनी रहती है। उसने अपने मन से समझ-बूझकर हिंसा आदि पापों का प्रत्याख्यान (त्याग) नहीं किया । मतलब यह है कि जिसने हिंसा आदि आस्रवों के द्वार खुले रखे हैं, बन्द नहीं किये हैं, उसे हिंसा आदि का पाप लगता रहता है, पापकर्मों का बन्ध होता रहता है। इस प्रकार जो मैंने पहले कहा था, वही सत्य है। किन्तु प्रश्नकर्ता द्वारा पूर्वसूत्र में तर्क प्रस्तुत किया गया था कि जगत् में बहुत-से प्राणी ऐसे हैं, जो देश और काल से अत्यन्त दूर हैं, इस कारण उनका न तो रूप ही देखने में आता है और न नाम ही सुनने में आता है, अत: उनके साथ पारस्परिक व्यवहार न रहने से किसी भी प्राणी की चित्तवृत्ति उन प्राणियों के प्रति हिंसात्मक कैसे बनी रह सकती है ? अतः अप्रत्याख्यानी प्राणी समस्त प्राणियों का घातक-हिंसक कैसे माना जा सकता है ? यह युक्तिसंगत नहीं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org