Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
पापों को मन, वचन, काया से समझ-बूझकर करे चाहे नासमझी से, अनजाने में करे । यह संज्ञी का दृष्टान्त है।
अब लीजिए असंज्ञी का हाल ! असंज्ञी उन्हें कहते हैं जो जीव सम्यग्ज्ञान, विशिष्ट चेतना तथा द्रव्य मन से रहित हैं। वे जीव सोये हुए, मतवाले या मूच्छित आदि के समान होते हैं । पृथ्वी से लेकर वनस्पतिकाय तक के तो समस्त एकेन्द्रिय जीव असंज्ञी कहलाते ही हैं और द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिद्रिय भी असंज्ञी होते हैं परन्तु पंचेन्द्रिय त्रस जीवों में कई असंज्ञी होते हैं, कई नहीं । यद्यपि इन असंज्ञी प्राणियों में तर्क, संज्ञा, बुद्धि, वस्तु को आलोचना करने, पहिचान करने, मनन करने, शब्द का उच्चारण करने, स्वयं करने, कराने या अनुमोदन करने की शक्ति नहीं होती, तथापि ये प्राणी दूसरे प्राणियों के घात करने की योग्यता रखते हैं क्योंकि इन्होंने किसी भी प्राणी का घात न करने का नियम नहीं लिया है, प्रत्याख्यान या त्याग नहीं किया है । यद्यपि इनमें मन-वचन-काय का विशिष्ट व्यापार नहीं होता, तथापि ये प्राणी प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक १८ ही पापों से युक्त हैं। इस कारण ये प्राणियों को दुःख, शोक, संताप, पीड़ा आदि उत्पन्न करने से विरत नहीं हैं, और प्राणियों को दुःख शोक, संताप आदि उत्पन्न करने से विरत न होने के कारण इन असंज्ञी जीवों को भी पापकर्म का बन्ध होता ही है। इसी तरह जो मनुष्य प्रत्याख्यानी नहीं है, वह चाहे किसी भी अवस्था में हो, सबके प्रति दुष्ट आशय होने के कारण उसे पापकर्म का बन्ध होता ही है । पूर्वोक्त दृष्टान्त के अनुसार जैसे संज्ञी और असंज्ञी दोनों प्रकार के जीवों के देशकाल से दूरवर्ती प्राणियों के प्रति भी दुष्ट आशय होने से कर्मबन्ध होता है, उसी प्रकार प्रत्याख्यानरहित प्राणी को दूरवर्ती प्राणियों के प्रति भी दुष्ट आशय होने से कर्मबन्ध होता ही है।
यहाँ शास्त्रकार ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि संज्ञी मरकर असंज्ञी भी हो जाते हैं और कभी असंज्ञी मरकर संज्ञी भी हो जाते हैं। कभी संज्ञी संज्ञी ही बनते हैं, इसी तरह असंज्ञी भी कभी मरकर पुन: असंज्ञी बन जाते हैं । इसलिए इस सम्बन्ध में जिन लोगों की यह मान्यता है कि "संज्ञी संज्ञी ही होता है, और असंही असंज्ञी ही होता है" यह युक्तियुक्त नहीं है । क्योंकि ऐसा होने से तो किसी भी जीव को अपने शुभाशुभ कर्म का कोई फल नहीं मिलेगा । नारकी सदा नारकी ही बना रहेगा और देवता सदा देवता ही बने रहेंगे। मगर यह अभीष्ट नहीं है । इसीलिए यहाँ शास्त्रकार स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं-कर्मों की विचित्रता के कारण कभी संज्ञी असंज्ञी और कभी असंज्ञी संज्ञी हो जाते हैं । क्योंकि जीवों की गति कर्माधीन होती है । अत: ऐसा कोई नियम नहीं है कि जो इस जन्म में जैसा है, वह अगले जन्मों में भी वैसा ही रहेगा।
____ अतः संज्ञी हों या असंज्ञी जिन्होंने पापों का त्याग-प्रत्याख्यान नहीं किया है, वे अशुद्ध आचार वाले है, दुष्ट आशय से युक्त हैं और सदा हिंसात्मक चित्तवृत्ति को
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