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तृतीय अध्ययन : आहार-परिज्ञा
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जोणिएसु उदएसु) इस विश्व में कई जीव जल में ही उत्पन्न होते हैं, जल में ही उनकी स्थिति होती है, जल में ही वे बढ़ते हैं। वे अपने पूर्वकृत कर्म से प्रेरित होकर वनस्पतिकाय में आते हैं और वहाँ वे अनेक प्रकार की जाति वाले जल में (उदगत्ताए अवगत्ताए पणगत्ताए सेवालत्ताए कलंबुगत्ताए हडताए कसेरुगताए कच्छभाणियत्ताए उप्पलत्ताए पउमत्ताए कुमुयत्ताए नलिणत्ताए सुभगत्ताए) उदक, अवक, पनक, शैवाल, कलम्बुक, हड, कसेरुक, कच्छभाणितक, उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन और सुभग (सोगंधियत्ताए पोंडरीय-महापोंडरीयत्ताए सयपत्तत्ताए सहस्सपत्तत्ताए एवं कल्हारकोंकणयत्ताए अरविंदत्ताए तामरसत्ताए भिसभिसमुणालपुक्खलत्ताए पुक्खलच्छिभगत्ताए विउति) तथा सौगन्धिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र एवं कल्हार, कोकनद, अरविन्द, तामरस, विस, मृणाल, पुष्कर और पुष्कराक्ष रूप से उत्पन्न होते हैं। (ते जीवा तेसि णाणाविहजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति ते जीवा पुढवीसरीरं जाव आहारति) वे जीव नाना प्रकार की जाति वाले जलों के स्नेह का आहार करते हैं, तथा वे पृथ्वी आदि शरीरों का भी आहार करते हैं। (तेसि उदगजोणियाणं उदगाणं जाव पुक्खलच्छिभगाणं अवरेऽवि य णाणावण्णा सरीरा जावमक्खायं एगो चेव आलावगो) उन जलयोनिक उदक से लेकर पुष्कराक्षभाग तक, जो वनस्पतिकाय के जीव कहे गए हैं । उनके विभिन्न वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, रचना से युक्त दूसरे शरीर भी होते हैं। किन्तु इनमें एक ही आलापक है ।
व्याख्या
___ उदकयोनिक वृक्षों के आहारादि का वर्णन इस सूत्र में जलयोनिक वृक्षों के विभिन्न प्रकारों का वर्णन किया गया है। सर्वप्रथम मूलपाठ में आर्य, वाय, काय, हण आदि वनस्पतियों की उत्पत्ति, स्थिति
और विकास के विषय में बताया गया है। इनकी आकृति, रंगरूप आदि कैसे होते हैं ? लोक व्यवहार में इन्हें किस नाम से पुकारते हैं ? इस सम्बन्ध में वृत्तिकार ने यहाँ कोई स्पष्टीकरण नहीं किया है, तथापि कुछ नाम ऐसे हैं, जो वर्तमान में प्रचलित हैं, जैसे छत्रक नामक वनस्पति छत्ते के आकार की होती है, जिसे वर्तमान में कुकुरमुत्ता कहते हैं । किन्तु एक बात निश्चित है कि ये सभी वनस्पतिकायिक जीव अपने-अपने कर्मों के वश निश्चित योनि में उत्पन्न होते है। कई प्राणी जल में वृक्ष रूप से उत्पन्न होते हैं, वे जलयोनिक वृक्ष कहलाते हैं । वे जल में ही उत्पन्न होते हैं और जल में ही स्थित रहते हुए जल में ही विकसित होते हैं । वे जल के स्नेह (रस) का तथा पृथ्वी आदि के शरीरों का आहार करते हैं। शेष सब वर्णन पृथ्वीयोनिक वृक्षों की तरह समझ लेना चाहिए । जैसे पृथ्वीयोनिक वृक्षों (पौधों) के चार आलापक कहे गये वैसे ही जलयोनिक वृक्षों के भी चार आलापक कहने चाहिए। परन्तु जलयोनिक वृक्षों से जो वृक्ष उत्पन्न होते हैं, उनमें सिर्फ एक ही विकल्प होता है, शेष तीन विकल्प नहीं होते।
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