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तृतीय अध्ययन : आहार-परिज्ञा
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के सूत्रों में वनस्पतिकाय आदि स्थावर जीवों के आहारादि का निरूपण किया गया था । इस सूत्र से त्रसकाय के जीवों के आहारादि का निरूपण प्रारम्भ करते हैं । वसकाय के ४ भेद हैं-देव, नारक, तिर्यञ्च और मनुष्य । देव और नारक प्रत्यक्ष नहीं दिखायी देते । वे प्रायः अनुमान से जाने जाते हैं। नारकी जीव अपने पापकर्मों का फल भोगने वाले जीवविशेष हैं, जबकि देवता प्राय: अपने शुभकर्मों का फल भोगने वाले जीवविशेष होते हैं। नारक जीवों का आहार एकान्त अशुभ पुद्गलों का बना हुआ होता है, जबकि देवों का आहार एकान्त शुभ पुद्गलों का बना हुआ होता है। नारक और देव दोनों ही ओज-आहार को ग्रहण करते हैं, कवलाहार को नहीं। ओज-आहार दो प्रकार का है-एक अनाभोगकृत, दूसरा आभोगकृत । अनाभोगकृत आहार तो प्रति समय होता रहता है, जबकि आभोगकृत आहार जघन्य चतुर्थभक्त और उत्कृष्ट ३३ हजार वर्षकृत होता है।
नारक और देव से भिन्न त्रसजीव तिर्यंच और मनुष्य हैं। मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी होता है, इसलिए सर्वप्रथम उसी के आहारादि का वर्णन किया गया है। मनुष्य जाति के जीव कर्मभूमि, अकर्मभूमि और अन्तर्वीप में निवास करते हैं। इनमें से कई वीतराग धर्म पर श्रद्धा रखने वाले आर्य होते हैं, जबकि कई पापकर्म में आसक्त अनार्य होते हैं।
इनकी उत्पत्ति संक्षेप में इस प्रकार है-स्त्री, पुरुष या नपुसक की उत्पत्ति के बीज भिन्न-भिन्न होते हैं, एक नहीं। स्त्री का शोणित (रज) और पुरुष का वीर्य (शुक्र) दोनों ही दोषरहित हों और शोणित की अपेक्षा शुक्र की मात्रा अधिक हो तो पुरुष की उत्पत्ति होती है, परन्तु यदि शोणित की मात्रा अधिक और शुक्र की मात्रा कम हो तो स्त्री की उत्पत्ति होती है, तथा यदि स्त्री का शोणित और पुरुष का शुक्र . दोनों समान मात्रा में हों तो नपुसक की उत्पत्ति होती है। इस तरह माता की दाहिनी कुक्षि से पुरुष की, और बांई कुक्षि से स्त्री की तथा दोनों ही कुक्षि से नपुंसक की उत्पत्ति होती है।
जब किसी जीव की अपने कर्मानुसार मनुष्ययोनि में उत्पत्ति होने वाली होती है तो उसके कर्मानुरूप स्त्री-पुरुष का सूरतसुख की इच्छा से सहवास होता है। वह संयोग उस जीव की उत्पत्ति का उसी तरह कारण होता है, जैसे दो अरणि की लकड़ियों का संयोग (घर्षण) अग्नि की उत्पत्ति का कारण होता है। इस प्रकार स्त्री और पुरुष के परस्पर संयोग होने पर उत्पन्न होने वाला जीव कर्म से प्रेरित होकर तैजस और कार्मण शरीर के द्वारा शुक्र और शोणित का आश्रय लेकर वहाँ उत्पन्न होता है। अर्थात् वह जीव सर्वप्रथम माता के रज और पिता के वीर्य के सम्मिश्रण रस-स्नेह का (जो कि अत्यन्त मलिन और अपवित्र होता है) आहार करता है, जिससे उस जीव के शरीर आदि का निर्माण होता है। तत्पश्चात् माता की कुक्षि में प्रविष्ट वह जीव, उसके द्वारा आहार किये हुए रसयुक्त नाना पदार्थों के स्नेह का आहार
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