________________
तृतीय अध्ययन : आहार-परिज्ञा
२६१
अन्वयार्थ
(अह अवरं पुरक्खायं) इसके पश्चात् श्री तीर्थंकरदेव ने और प्राणियों का वर्णन भी किया है। (इहेगइया सता णाणाविहजोणिया जाव कम्मणियाणेणं तत्थवुक्कमा) इस जगत् में कई जीव नानाविध योनियों में उत्पन्न होकर कर्म की प्रेरणा से वायुयोनिक अप्काय में आते हैं। (णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सचित्त सु वा अचित्त सुवा सरीरेसु तं सरीरगं वायसंसिद्ध वायसंगहियं वायपरिग्गहियं) वे प्राणी अप्काय में आकर अनेक प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के सचित्त तथा अचित्त शरीर में अपकाय रूप से उत्पन्न होते हैं। वह अपकाय वायु से बना हुआ और वायु के द्वारा संग्रह किया हुआ तथा वायु के द्वारा धारण किया हुआ होता है। (उड़ढवाएसु उड्ढभागी अहेवाएसु अहेभागी तिरियवाएसु तिरियभागी भवति) अतः वह ऊपर का वायु हो तो ऊपर, नीचे का वायु हो तो नीचे तथा तिरछा वायु हो तो तिरछा जाता है। (तं जहा-ओसा हिमए महिया करए हरतणुए सुद्धोदए) उस अप्काय (जलकाय) के कुछ नाम ये हैं-अवश्याय (ओस), हिम (बर्फ), मिहिका (कोहरा), करए (ओला), हरतनु और शुद्ध जल । (ते जीवा णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति) वे जीव अनेक प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के स्नेह का आहार करते हैं। (पुढवीसरीरं जाव संतं) वे पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं और उन्हें पचाकर अपने शरीर में परिणत कर लेते हैं। (तेसि तसथावरजोणियाणं ओसाणं जाव सुद्धोदगाणं अवरेऽवि य णाणावण्णा सरीरा जावमक्खायं) उन त्रस-स्थावर-योनि से उत्पन्न अवण्याय से लेकर शुद्धोदक पर्यन्त जीवों के और भी अनेक रंग-रूप, गन्ध, रस और स्पर्श वाले तथा विभिन्न आकार-प्रकार के शरीर होते हैं। ऐसा श्री तीर्थंकरदेव ने कहा है।
(अह अवरं पुरक्खायं) इसके पश्चात् श्री तीर्थंकरदेव ने अप्काय (जल) से उत्पन्न होने वाले विभिन्न जलकायिक जीवों का स्वरूप पहले बताया था। (इहेगइया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा कम्मणियाणेणं तत्थवुक्कमा तसथावरजोणिएसु उदएसु उदगत्ताए विउति ) इस जगत् में कितने ही प्राणी जल से उत्पन्न होते हैं, जल में ही स्थित रहते हैं और जल में ही बढ़ते हैं। वे अपने पूर्वकृत कर्म के प्रभाव से जल में आते हैं और वस-स्थावरयोनिक जल में जल रूप से उत्पन्न होते हैं। (ते जीवा तेसि तसथावरजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति) वे जीव उन वसस्थावरयोनिक जलों के स्नेह का आहार करते हैं, (पुढवीसरीरं जाव संतं) वे पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं तथा उन्हें पचाकर अपने शरीर में परिणत कर लेते हैं । (तेसि तसथावरजोणियाणं उदगाणं अवरेऽबि य णाणावण्णा सरीरा जाव
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org