Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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तृतीय अध्ययन : आहार - परिज्ञा
२६६
शरीरव्युत्क्रमाः शरीराहाराः कर्मोपगाः कर्मनिदानाः कर्मगतिकाः कर्मस्थितिका: कर्मणा चैव विपर्यासमुपयन्ति तदेवं जानीत एवं ज्ञात्वा आहारगुप्तः सहितः समितः सदा यत इति ब्रवीमि ।। सू० ६२ ॥
अन्वयार्थ
( अहावरं पुरखायं ) इसके बाद श्री तीर्थंकरदेव ने जीवों के आहारादि के सम्बन्ध में और बातें भी कहीं थीं, (सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता णाणाविजोगिया णाणाविहसंभवा णाणाविहवुक्कमा ) समस्त प्राणी, सर्व भूत, सर्व जीव एवं सब सत्त्व नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न होते हैं और वहीं वे स्थित रहते तथा वृद्धि पाते हैं | (सरीरजोणिया सरीरसंभवा सरीरबुवकमा सरीराहारा ) वे शरीर से ही उत्पन्न होते हैं, शरीर में ही रहते हैं, तथा शरीर में ही बढ़ते हैं, एवं वे शरीर काही आहार करते हैं, ( कम्मोवगा कम्मनियाणा कम्मगइया कम्मठिया) वे अपनेअपने कर्म का ही अनुसरण करते हैं, कर्म ही उस उस योनि में उनकी उत्पत्ति का कारण है, तथा उनकी गति और स्थिति भी कर्म के अनुसार ही होती हैं । (कम्माणा चैव विपरियासत) वे कर्म के ही प्रभाव से सदैव भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करते हुए दुःख के भागी होते हैं । ( एवमायाह एवमायाणित्ता आहारगुत्ते सहिए समिए या ए) हे शिष्यो ! ऐसा ही जानो । और इस प्रकार जानकर सदा आहार गुप्त ज्ञानदर्शनचारितसहित समितियुक्त और संयमपालन में सदा यत्नशील बनो । ( ति बेमि ) ऐसा मैं कहता हूँ ।
व्याख्या
समस्त प्राणियों की अवस्था, आहारादि तथा साधक के लिए प्रेरणा इस अन्तिम सूत्र द्वारा शास्त्रकार इस अध्ययन का उपसंहार करते हुए सामान्य रूप से समस्त प्राणियों की अवस्था बताकर साधुओं को संयमपालन में सदा जागरूक और प्रयत्नशील रहने का उपदेश देते हैं ।
इस विश्व में जितने भी प्राणी हैं, वे सब अपने-अपने कर्मानुसार भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेते हैं । कोई देवता बनता है, कोई नारकी, कोई मनुष्य बनता है। तो कोई तिर्यञ्चयोनि में एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक अपने-अपने कर्म से प्रेरित होकर उत्पन्न होते हैं, किसी काल, ईश्वर आदि की प्रेरणा से नहीं । वे जिस योनि में उत्पन्न होते हैं; उसी में आयु पूर्ण होने तक टिके रहते हैं और उसी में उनके शरीरादि का विकास होता है ।
मतवादी यह कहते हैं - जो जीव इस जन्म में जैसा होता है, वह वैसा ही अगले जन्म में भी होता है, परन्तु यह बात वीतराग तीर्थंकरदेव के सिद्धांत और प्रत्यक्ष अनुभव से विरुद्ध होने से यथार्थ नहीं है ।
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