Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
कत
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स्मिन्नपि लोके चत्वारो बीजकायाः एवमाख्यायन्ते तद्यथा - अग्रबीजाः, मूल बीजा:, पर्वबीजा:, स्कन्धबीजाः । तेषां च यथाबीजेन यथाऽवकाशेन इहैसत्त्वाः पृथिवीयोनिका पृथिवीसम्भवाः, पृथिवीव्यु क्रत्माः कर्मोपगाः कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रान्ताः नानाविधयोनिका पृथिवीष वृक्षतया विवर्तन्ते । ते जीवाः नानाविधयोनिकानां तासां पृथिवीनां स्नेहमाहारयन्ति । ते जीवाः आहारयन्ति पृथिवीशरीरं अप्शरीरं तेजः शरीरं वायुशरीरं वनस्पतिशरीरम् । नानाविधानां त्रसस्थावराणां प्राणानां शरीरमचित्त कुर्वन्ति परिविध्वस्तं तच्छरीरं पूर्वाहारितं त्वचाहारितं विपरिणतं स्वरूपतः कृतं स्यात् । अपराण्यपि च खलु तेषां पृथिवीयोनिकानां वृक्षाणां शरीराणि नानावर्णानि नानागन्धानि नानारसानि नानास्पर्शानि नानासंस्थानसंस्थितानि नानाविधशरीरपुद्गलविकारितानि । ते जीवाः कर्मोपपन्नाः भवन्तीत्याख्यातम् ।। सू० ४३ ।।
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अन्वयार्थ
( आउस तेषं भगवया एवमवखायं मे सुयं ) आयुष्मन् ! उन भगवान् श्री महावीर स्वामी ने कहा था, मैंने सुना है | ( इह खलु आहारपरिष्णाणामज्झयणे, तस्स णं अमट्ठे ) इस सर्वज्ञ तीर्थंकर देव के शासन (प्रवचन) में आहारपरिज्ञा नामक एक अध्ययन है, जिसका अर्थ ( भाव ) यह है - ( इह खलु पाईणं वा ४ सव्वतो सव्वावंति च णं लोगंसि चत्तारि बीयकाया एवमाहिज्जति) इस लोक में पूर्व आदि दिशाओं तथा विदिशाओं में एवं चारों और समस्त लोक में चार प्रकार के बीजकाय वाले जीव होते हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं - ( अग्गबीया मूलबीया पोरबीया बंधबीया ) अग्रबीज, मूलबीज, पर्वबीज एवं स्कन्धबीज । (तसि च णं अहाबीएणं अहावगासेणं गतिया सत्ता पुढवीजोणिया पुढवीसंभवा पुढवी वुक्कमा) उन बीजकाय वाले जीवों में जो जिस प्रकार के बीज से और जिस प्रदेश में उत्पन्न होने की योग्यता रखते हैं, वे उस उस बीज और उस उस प्रदेश में पृथ्वी पर उत्पन्न होते हैं, और उसी पर स्थित रहते हैं, तथा पृथ्वी पर ही उनका संवर्द्धन विकास होता है । ( तज्जोणिया तस्संभवा तदुक्कमा) पृथ्वी पर उत्पन्न होने, उसी पर स्थित होने और उसी पर बढ़ने वाले वे जीव (कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवुक्कमा णाणाविहजोणियासु पुढवीसु रुक्खत्ताए विउट्ठेति) कर्म के वशीभूत होकर तथा कर्म से आकर्षित होकर नाना प्रकार की योनि वाली पृथ्वी में वृक्षरूप में उत्पन्न होते हैं । (ते जीवा तेसि णाणाविहजोणिया पुढवीणं सिणेहमाहारेंति) वे जीव नाना जाति वाली पृथ्वी के स्नेह (स्निग्धता) का
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