Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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तृतीय अध्ययन : आहार-परिज्ञा
२२७ ये वृक्षयोनिक वृक्ष के जीव भी अपने कर्मों से प्रेरित होकर ही इस शरीर को पाते हैं, किसी ईश्वर, काल आदि से प्रेरित होकर नहीं। इन वृक्षों का वर्णन भी पूर्व सूत्र में वर्णित पृथ्वीयोनिक वृक्षों के समान ही समझ लेना चाहिए ।
मूल पाठ अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवुक्कमा तज्जोणिया तस्संभवा तदुवक्कमा कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवुक्कमा रुक्खजोणिसु रुक्खत्ताए विउटेति । ते जीवा तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेति, ते जीवा आहारेंति पुढवीसरीरं आउतेउवाउवणस्सइसरीरं, तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति, परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणामियं सारूविकडं संतं । अवरेऽवि य णं तेसि रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सरीराणाणावना जाव ते जीवा कम्मोववन्नगा भवंतीतिमक्खायं ॥ सू० ४५ ॥
संस्कृत छाया अथाऽपरं पुराऽऽख्यातम् इहैकतये सत्त्वाः वृक्षयोनिकाः वृक्षसम्भवाः वृक्षव्युत्क्रमाः तद्योनिका: तत्सम्भवाः तदुपक्रमा कर्मोपगाः कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रमाः वृक्षयोनिकेषु वृक्षेषु वृक्षतया विवर्तन्ते । ते जीवाः तेष वृक्षयोनिकानाम् वृक्षाणां स्नेहमाहारयंति ते जीवा: आहारयन्ति पृथिवीशरीरमप्तेजोवायुवनस्पतिशरीरं त्रसस्थावराणां प्राणानां शरीरमचित्त कुर्वन्ति, परिविध्वस्तं तच्छरीरं पूर्वाहारितं त्वचाहारितं विपरिणामितं सरूपीकृतं स्यात् । अपराण्यपि च खलु तेषां वृक्षयोनिकानां वृक्षाणां शरीराणिं नानावर्णानि यावत् ते जीवाः कर्मोपपन्नकाः भवन्तीत्याख्यातम् ।। सू० ४५॥
अन्वयार्थ (अहावरं पुरक्खायं) श्री तीर्थंकरदेव ने इसके पश्चात् वनस्पतिकाय के जीवों का अन्य भेद भी बताया है। (इहेगतिया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवुक्कमा) कई जीव वृक्ष में उत्पन्न होते हैं, उसी में रहते हैं और उसी में बढ़ते हैं। (तज्जो. णिया तस्संभवा तदुवक्कमा) वे जीव वृक्ष से उत्पन्न होने वाले, वृक्ष में ही स्थित रहने वाले और वृक्ष में ही संवृद्धि पाने वाले होते हैं । (कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवुक्कमा रुक्खजोणिएसु) वे जीव कर्म के वशीभूत होकर तथा कर्म के कारण ही उन वृक्षों
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