Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
व्याख्या
अध्यारह की उत्पत्ति और आहार
पूर्व सूत्रों में कई वनस्पतिकायिक जीव वृक्ष से उत्पन्न होकर वृक्ष में ही स्थिति और वृद्धि को प्राप्त करने वाले वृक्षों का वर्णन किया गया था। इस सूत्र में एक विशिष्ट वृक्ष का निरूपण है, अर्थात् उन वृक्षयोनिक वृक्षों में अध्यारुह नामक एक वनस्पतिविशेष उत्पन्न होती है, जो वृक्ष के ही ऊपर उसी के आश्रय से ही उत्पन्न होती है, इसीलिए उसे अध्यारुह कहते हैं। वह वनस्पति जिस वृक्ष में उत्पन्न होती है, उसी के स्नेह का आहार करती है, इसके अतिरिक्त वह पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीरों का भी आहार करती है । वह उक्त शरीरों का आहार करके अपने रूप में परिणत कर लेती है। वह अध्यारह वनस्पति विभिन्न प्रकार के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाली तथा विभिन्न आकृति वाली होती है । इस वनस्पति में अपने किये हुए कर्मों से प्रेरित होकर जीव उत्पन्न होते हैं । यह भगवान के कथन का आशय है ।
वृक्ष से उत्पन्न होने वाले वृक्षयोनिक वृक्षों में अध्यारुह नामक वृक्ष उत्पन्न होता है । उनके प्रदेशों की वृद्धि करने वाले दूसरे अध्यारुह वृक्ष भी उनमें पैदा होते हैं । इस प्रकार अध्यारह वृक्षों में ही अध्यारुह रूप से उत्पन्न होने वाले वे वृक्ष अध्यारुहयोनिक अध्यारुह वृक्ष कहलाते हैं। वे अध्यारुहयोनिक अध्यारुह वृक्ष जिस अध्यारुह में पैदा होते हैं, उसी के स्नेह का आहार करते हैं, तथा पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीर का भी आहार करते हैं। वे उनके प्रासुक शरीर को अपने रूप में परिणत कर लेते हैं। उन अध्यारुहों के शरीर भी नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और आकार-प्रकार के होते हैं। यह भी समझ लेना चाहिए।
४६वें सूत्र में उन्हीं अध्यारुहयोनिक अध्यारह वृक्ष में उत्पन्न हुए अध्यारुह वृक्ष में उत्पन्न होने वाले अन्य अध्यारह वृक्ष का वर्णन किया गया है । जिसका सारा वर्णन पूर्व सूत्रवत् समझ लेना चाहिए।
इसके अनन्तर ५०वें सूत्र में उन अध्यारुहयोनिक अध्यारुह नामक वृक्षों के अवयवों के रूप में उत्पन्न मूल, कन्द, स्कन्ध, प्रवाल, साल, त्वचा से लेकर बीज तक की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि एवं रचना तथा आहार के सम्बन्ध में निरूपण किया गया है । वे मूल आदि से लेकर बीज तक के अध्यारुह-अंगभूत वृक्ष अपने-अपने कर्मानुसार उन-उन योनियों में पैदा होते हैं, वे भी भिन्न-भिन्न रंग-रूप, गन्ध, रस, स्पर्श एवं आकार प्रकार के होते हैं। वे या तो अध्यारुहयोनिक वृक्षों के स्नेह का आहार ग्रहण कर लेते हैं, या फिर वे पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीरों से पूर्वोक्त रीति से आहार ले लेते हैं।
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