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सूत्रकृतांग सूत्र
हैं, जो अनेक वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त तथा नाना प्रकार के पुद्गलों से बनते हैं, (ते जीवा कम्मोववन्नगा भवतीति मक्खायं) वे जीव कर्मवश होकर ही वहाँ उत्पन्न होते हैं, ऐसा श्री तीर्थंकर देव ने कहा है ।
व्याख्या
वृक्ष के मूल आदि अवयवों की उत्पत्ति एवं आहार आदि का निरूपण
इस सूत्र में वृक्ष के अंगोपांगों के रूप में उत्पन्न मूल, कन्द आदि दस वनस्पतिकायिक जीवों की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि एवं आहार के सम्बन्ध में पूर्व सूत्रवत् वर्णन किया गया है । वास्तव में मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वक् (छाल), शाखा, प्रवाल (कौंपल ), पत्र (पत्ते), फल, फूल एवं बीज - वृक्ष के इन अवयवरूप दस वस्तुओं के जीव पृथकपृथक हैं, और वृक्ष का सर्वांग व्यापक जो जीव है, वह इनसे भिन्न है । ये सब अवयव वृक्षयोनिक वृक्षों में मूल, कन्द, स्कन्ध, छाल, शाखा, कौंपल, पत्त े, फूल, फल एवं बीज के रूप में अलग-अलग उत्पन्न होते हैं । तथा पृथ्वीयोनिक वृक्ष जैसे पृथ्वी से उत्पन्न होकर पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीरों का आहार करते हैं; तथा विभिन्न स-स्थावर प्राणियों के शरीर का रस चूसकर ये उन्हें अचित्त कर डालते हैं, और फिर अचित्त किये हुए तथा आहार किये हुए उन उन जीवों के अचित्त शरीर को अपने रूप में परिणत कर लेते हैं । और जैसे पृथ्वीयोनिक वृक्षों के विभिन्न वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले शरीर होते हैं, इसी तरह इन मूल, कन्द आदि दस अवयव रूप वनस्पतिकायिक जीवों के भी होते हैं । तथा ये जीव अपने पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मानुसार कर्म से प्रेरित होकर ही इन विभिन्न योनियों में उत्पन्न होते हैं । किसी काल या ईश्वर आदि के प्रभाव से नहीं । शेष बातें पूर्ववत् जान लेनी चाहिए ।
मूल पाठ
अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवुक्कमा तज्जोणिया तस्संभवा तदुवक्कमा कम्मोववन्नगा कम्मणियाणेणं तत्थ - वुक्कमा रुक्खजोणिएहि रुक्खेहिं अज्झारोहत्ताए विउट्टति । ते जीवा तेसि रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढवीसरीरं जाव सारूविकडं संतं, अवरेऽवि य णं तेसि रुक्खजोणियाणं अज्झारोहाणं सरीरा णाणावन्ना जाव भवतीतिमवखायं ॥ सू० ४७ ॥
अहावरं पुरवखायं इहेगइया सत्ता अज्झारोहजोणिया अज्झारोहसंभवा जाव कम्मनियाणं तत्थवुक्कमा रुक्खजोणिएसु अज्झारोहेसु अज्झारोहत्ताए विउद्धति, ते जीवा तेसि रुक्खजोणियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमा
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