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तृतीय अध्ययन : आहार-परिज्ञा
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__ आहार-परिज्ञा नामक प्रस्तुत अध्ययन में यह स्पष्ट बताया गया है कि जीवहिंसा के बिना आहार की प्राप्ति दुष्कर है। समस्त प्राणियों की उत्पत्ति एवं आहार को दृष्टिगत रखते हुए यह बात आसानी से फलित की जा सकती है। इसीलिए इस अध्ययन के उपसंहार में शास्त्रकार ने साधुओं के लिए संयम-नियमपूर्वक निर्दोष शुद्ध आहार ग्रहण करने पर जोर दिया है, ताकि कम से कम जीवहिंसा हो और पापकर्म का बन्ध न हो। इस विश्लेषण के प्रकाश में क्रमप्राप्त इस अध्ययन का प्रथम सूत्र इस प्रकार है
मूल पाठ सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं - इह खलु आहारपरिण्णाणामज्झयणे, तस्स णं अयमठे-इह खलु पाईणं वा ४ सव्वतो सव्वावंति च णं लोगंसि चत्तारि बीयकाया एवमाहिज्जंति, तं जहा-अग्गबीया, मूलबीया, पोरबीया, खंधबीया। तेसि च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इहेगतिया सत्ता पुढवीजोणिया पुढवीसंभवा पुढवीवुक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तवक्कमा कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थुवुक्कमा णाणाविहजोणियासु पुढवीसु रुक्खताए विउदृन्ति । ते जीवा तेसि गाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढवीसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं। णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुन्वंति, परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूवियकडं संतं । अवरेऽवि य णं तेसिं पुढविजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावण्णा जाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया गाणाविहसरीरपुग्गल विउवित्ता ते जीवा कम्मोववनगा भवंतित्तिमक्खायं ॥ सू० ४३ ॥
संस्कृत छाया श्रुतं मयाऽऽयुष्मन् तेन भगवता एवमाख्यातम्-इह खलु आहारपरिज्ञा नामाध्ययनं, तस्य चायमर्थः । इह खलु प्राच्यां वा ४ सर्वतः सर्व
औदारिक (स्थूल) आहार और सूक्ष्म आहार । जन्मान्तर प्राप्त करते समय गति में रहते हुए जीवों का आहार सूक्ष्म होता है। सूक्ष्म प्राणियों का आहार भी सूक्ष्म हो जाता है। इसके अतिरिक्त स्पर्श-आहार, मनः-संचेतना और विज्ञानरूप तीन प्रकार के आहार और माने गये हैं जो कामादि तीन धातुओं में होते हैं ।
--अभिधर्मकोश, तृतीय कोशस्थान, श्लो० ३८-४४
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