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सूत्रकृतांग सूत्र
कारण है । कर्म से प्रेरित होकर ही जीव नाना-विध योनियों में पैदा होता है । इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं-'कम्मोवगा।" अर्थात् कर्म से प्रेरित होकर प्राणी वनस्पतिकाय में उत्पन्न होते हैं । यद्यपि वे वनस्पतिकायिक जीव अपने-अपने बीज और अपनेअपने सहकारी कारण-काल आदि से ही उत्पन्न होते हैं, तथापि वे पृथ्वीयोनिक कहलाते हैं, क्योंकि उनकी उत्पत्ति के कारण जैसे बीज आदि हैं, वैसे पृथ्वी भी है। पृथ्वी के बिना उनकी उत्पत्ति हो नहीं सकती। पृथ्वी ही उनका आधार है। अतः ये वृक्ष पृथ्वीयोनिक हैं । ये जीव पृथ्वी पर उत्पन्न होते हैं, पृथ्वी पर ही स्थित (टिके) रहते हैं और पृथ्वी पर ही बढ़ते हैं । वे अपने कर्म से प्रेरित होकर उसी वनस्पतिकाय से आकर फिर उसी में उत्पन्न होते हैं। वे जिस पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं, उसी पृथ्वी के स्नेह (स्निग्धता) का आहार करते ही हैं, इसके अतिरिक्त जल, तेज, वायु और वनस्पति का भी आहार करते हैं। जैसे माता के उदर में रहने वाला बालक माता के उदर में स्थित पदार्थों का आहार करता हुआ भी माता को पीड़ा नहीं पहुँचाता, वैसे ही वे वृक्ष पृथ्वी के स्नेह का आहार करते हुए भी पृथ्वी को पीड़ा नहीं पहुँचाते । उत्पत्ति के बाद पृथ्वी से भिन्न वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि से युक्त होने के कारण चाहे वे कष्ट भी देते हों, मगर उत्पत्ति के समय वे कष्ट नहीं देते । वे वनस्पतिकापिक जीव जब बस-स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं तब वे उन्हें पहले अपने श्ररीर से विध्वस्त करके अचित्त कर देते हैं, फिर पहले आहार किये हुए पृथ्वी आदि के शरीर को अपने रूप में परिणत कर डालते हैं। इनके पत्र, पुष्प, फल, मूल, शाखा
और प्रशाखा आदि नाना वर्ण वाले, नाना रस वाले और नाना रचना तथा भिन्न-भिन्न गुण वाले होते हैं।
यद्यपि शाक्य मत वाले इन स्थावरों को जीव का शरीर नहीं मानते, तथापि जीव का लक्षण जो उपयोग है, वह वृक्षों में भी परिलक्षित होता है । अतः इनके जीवत्व की सिद्धि होती है। यह प्रत्यक्ष मालूम होता है कि जिधर आश्रय मिलता है, लता उसी ओर जाती है। तथा विशिष्ट आहार मिलने पर वनस्पति की वृद्धि; और आहार न मिलने पर उसकी कृशता देखी जाती है। इन सब कार्यों को देखते हुए वनस्पति जीव है, यह स्पष्ट सिद्ध होता है । अतः वनस्पति को जीव न मानना भूल है ।
___ जीव अपने पूर्वकृत कर्मों से प्रेरित होकर वनस्पतिकाय में उत्पन्न होते हैं, किसी काल, ईश्वर आदि से प्रेरित होकर नहीं, यह तीर्थंकरों और गणधरों का सिद्धान्त है।
सारांश इस सूत्र में आहार-परिज्ञा के सन्दर्भ में बीजकायिक जीवों की उत्पत्ति तथा उनके द्वारा आहार ग्रहण करने का ढङ्ग बताया गया है। वास्तव में
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