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द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान
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कक्कसं चंडं दुग्गं तिब्बं दुरहियासं गैरइया वेयणं पच्चणुभवमाणा विहरंति ॥ सू० ३६ ॥
संस्कृत छाया ते नरकाः अन्तोवृत्ताः बहिश्चतुरस्राः अधः क्षुरप्रसंस्थानसंस्थिताः नित्यान्धकारतमसो, व्यपगतग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्रज्योतिष्पथाः, मेदोवसामांसरुधिरपूयपटललिप्तानुलेपनतलाः अशुचयो विश्राः परमदुर्गन्धाः कृष्णा अग्निवर्णाभाः कर्कशस्पर्शा: दुरधिसहा: अशुभाः नरकाः, अशुभाः नरकेषु वेदना: नो चैव नरकेषु नैरयिका: निद्रान्ति वा, प्रचलायन्ते वा शुचिं वा रति वा धृति वा मतिं वा उपलभन्ते । ते खलु तत्र उज्ज्वलां प्रगाढां विपुलां कटुकां कर्कशां दु:खां दुर्गा तीव्रां दुरधिसहां, नैरयिकाः वेदनां पर्यनुभवन्तो विहरन्ति ॥ सू० ३६ ॥
अन्वयार्थ (ते णरगा अंतो वटा बाहिं चउरसा) वे नरक अन्दर से गोल और बाहर से चौकोन होते हैं । (अहे खुरप्पसंठाणसंठिया) वे नीचे उस्तरे की धार के समान तीखे होते हैं। (णिच्चंधकारतमसा) उनमें सदा घोर अंधेरा रहता है । (ववगयचंदसूरगहनक्खत्तजोइप्पहा) वे चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और ज्योति मण्डल के प्रकाश से रहित होते हैं । ( मेदवसामंसरुहिरपूयपडलचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला) उनका भूमितल मेद, चर्बी, मांस, रक्त और मवाद की परतों से उत्पन्न कीचड़ से लिप्त है। (असुइ वीसा परमदुब्भिगंधा कण्हा) वे अपवित्र, सड़े हुए माँस से युक्त, अत्यन्त दुर्गन्ध से पूर्ण और काले हैं। (अगणिवष्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा) वे सधूम अग्नि के समान वर्ण वाले, कठिन स्पर्श वाले और दूसह्य हैं । (असुभा गरगा असुभा णरएसु वेयणाओ) इस प्रकार नरक बड़े अशुभ हैं और उनकी पीड़ा भी बड़ी अशुभ है। (णो चेव णरएसु नेरइया णिददायंति वा पयलायंति वा सुई वा धिति वा तिं वा मति वा उवलभंते) उन नरकों में रहने वाले जीव कभी निद्रा-सुख को प्राप्त नहीं करते और न ही प्रचल निद्रा ही आती है, न उन्हें श्रुति, (धर्म श्रवण), रति (किसी विषय में रुचि), धृति (धैर्य) और मति (सोचने-विचारने की बुद्धि) प्राप्त होती है (ते रइया तत्थ उज्जलं विउलं पगाढं कडुयं कक्कसं चंडं दुक्खं दुग्गं तिव्वं दुरहियासं वेयणं पच्चगुभवमाणा विहरति) वे नारकीय जीव वहाँ कठिन, विपुल, प्रगाढ़, कर्कश, तीव्र, दुःसह और अपार दुःख को भोगते हुए अपना समय व्यतीत करते हैं ।
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