Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
भक्तिपूर्वक प्रासुक और एषणीय, कल्पनीय अशन-पान-खाद्य-स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोञ्छन, औषध, भैषज्य, पीठ (चौकी), फलक (पट्टा), शय्या संस्तारक आदि देकर लाभ लेते हैं। बहुत-से अणुव्रत, गुणव्रत और शील (शिक्षा) व्रत, नियम, त्याग, प्रत्याख्यान, पौषध, उपवास आदि यथाशक्ति ग्रहण करके तपत्याग द्वारा अपनी आत्मा को भावित-सुवासित करते हुए जीवन बिताते हैं। अनेक वर्षों तक लगातार वह श्रमणोपासक के व्रतों का निष्ठापूर्वक पालन करता हुआ जीवन के अंतिम क्षणों में किसी रोग या संकट के उत्पन्न होने पर या न होने पर भी अनेक दिनों तक आहार-पानी का प्रत्याख्यान करके आमरण अनशन (संलेखना-संथारा) करता है और संलेखना संथारा करके अपने पाप-दोषों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण करके वह समाधिपूर्वक शरीर को छोड़ देता है । वह न तो अधिक जीने की आकांक्षा करता है न ही शीध्र मृत्यु की आकांक्षा करता है। इस प्रकार समाधिपूर्वक मरकर वह श्रावक किसी उत्तम देवलोक में उत्पन्न होता है, जो महान् ऋद्धि, द्यु ति, सुखसम्पत्ति आदि से सम्पन्न होता है । बस, मिश्रस्थान के अधिकारी का यही स्वरूप है । मौटे तौर से देखें तो इस तीसरे स्थान की संक्षेप में पहिचान यह है--(१) पापों से अनिवृत्ति (अविरति) की अपेक्षा से इसे बाल कहते हैं, (२) पापों से निवृत्ति के कारण इसे पंडित कहते हैं और कुछ पापों से अनिवृत्ति और कई पापों से निवृत्ति (विरति) होने की अपेक्षा से इसे विरताविरति कहते हैं ।
इन तीनों स्थानों में से जिस स्थान में समस्त पापों अनिवृत्ति होती है. वह प्रथम स्थान है, जो सर्वथा आरम्भयुक्त एवं अनार्य स्थान होता है। इस स्थान का स्वामी समस्त दुःखों का सर्वथा नाश नहीं कर पाता। अब सुनिये दूसरे स्थान के स्वामी का हाल ! वह आरम्भ-परिग्रह से सर्वथा विरत होता है, इसलिए अनारम्भी है, आर्य है, यहाँ तक कि इसमें समस्त दुःखों को मिटाने का उपाय है, यह सर्वथा सम्यक् एवं उत्तम होता है । किन्तु तीसरे स्थान का स्वामी कई पापों या सर्व पापों से कुछ अंशों में विरत नहीं होता, कुछ अंशों में विरत होता है। इसलिए इसका दूसरा नाम आरम्भ-नोआरम्भस्थान है। शास्त्रकार ने इस स्थान को अनार्य और बुरा न कहकर एकान्त रूप से आर्य तथा समस्त दुःखों से मुक्त होने का मार्ग बताया है।
वास्तव में तीसरा स्थान विरताविरती, धर्माधर्मी, संयमासंयमी आदि नामों से आगमों में प्रसिद्ध है।
मूल पाठ एवमेव समणुगम्ममाणा इमेहि चेव दोहि ठाणेहिं समोअरन्ति, तं जहाधम्मे चेव अधम्मे चेव, उवसन्ते चेव अणुवसन्ते चेव । तत्थ णं जे से पढमस्स
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