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सूत्रकृतांग सूत्र
कोई चीज नहीं सुहाती, उनका सारा जीवन धर्म से ओत-प्रोत रहता है, यहाँ तक कि वे धर्मपूर्वक ही अपनी जीविका चलाते हैं, धर्ममय जीवन बिताते हैं । ऐसे लोग बड़े ही सुशील, सम्यक्त्रतनिष्ठ, शीघ्र प्रसन्न होने वाले और उत्तम कोटि
साधु होते हैं । वे जीवन भर समस्त प्रकार की हिंसाओं से लेकर झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह, यहाँ तक कि मिथ्यादर्शन- शल्य तक १८ ही प्रकार के पापस्थानों से विरत होते हैं । दूसरे अनाड़ी लोग, जहाँ पापयुक्त. अज्ञानपूर्ण एवं दूसरे प्राणियों को संतप्त करने वाले दुष्कर्म जिन्दगीभर करते रहते हैं, वहाँ ये साधुपुरुष जिन्दगीभर उन दुष्कर्मों से बचे रहते हैं ।
वे धार्मिक पुरुष और कोई नहीं, घर-बार, जमीन-जायदाद, धन-सम्पत्ति और कुटुम्ब कबीले का मोह छोड़कर पाँच महाव्रतधारी अनगार भगवन्त होते हैं, जो ईर्यासमिति आदि ५ समितियों, तीन गुप्तियों तथा मन-वचन-काय की समितियों से युक्त होते हैं । वे सदैव अपनी आत्मा को पाप से बचाते हैं, अपनी इन्द्रियों को विषय-भोगों से बचाते हैं, अपने जीवन में ब्रह्मचर्य को गुप्तियों पूर्वक सुरक्षित रखते हैं, वे क्रोध, मान, माया, लोभ से दूर रहते हैं, वे शान्त - प्रशान्त और उपशान्त रहते हैं । उनके बाहर और भीतर हमेशा शान्ति झलकती है । आस्रवों से कोसों दूर रहते हैं, बाह्याभ्यन्तरं ग्रन्थ ( परिग्रह ) से भी दूर रहते हैं । संसार के स्रोत को वे महापुरुष बन्द कर देते हैं, कर्ममल से निर्लिप्त रहते हैं । कांसे के बर्तन के समान उन पर कर्मजल नहीं टिक सकता, शंख की तरह राग-द्व ेषादि की कालिमा से रहित होते हैं, चेतनाशील प्राणी की तरह उनकी गति अवाध होती है । आकाशतत्त्व की तरह वे किसी भी प्रकार का आलम्बन नहीं लेते, वायु की तरह अप्रतिबद्धविहारी होते हैं, शरत्काल के स्वच्छ जल की तरह उनका हृदय स्वच्छ और निर्मल होता है, कछुए की तरह वे अपनी इन्द्रियों को विषयों से बचाते हैं, पक्षी की तरह वे उन्मुक्त - सर्व ममताओं से रहित होकर स्वतन्त्रविहारी होते हैं, जैसे गेंडे के एक ही सींग होता है. वैसे ही वे महात्मा भाव से राग-द्वेषरहित अकेले ही रहते हैं । भारण्ड पक्षी की तरह वे अप्रमत्त रहते हैं, जैसे हाथी पेड़ आदि को उखाड़ने में कुशल होता है, वैसे ये भी कषायों का दलन करने में कुशल होते हैं, जैसे बैल भार ढोने में समर्थ होता है, वैसे ही ये महात्मा भी संयम - भार को वहन करने में समर्थ होते हैं । जैसे सिंह दूसरे जीवों से दबता नहीं, पराजित नहीं होता, वैसे ही वे महात्मा किसी उपसर्ग या परीषह से दबते नहीं, पराजित नहीं होते । मन्दराचल की तरह ये महात्मा ( परीषहों और उपसर्गों से ) कम्पित नहीं होते । वे सूर्य के समान तेजस्वी, चन्द्रमा के समान सौम्य, पृथ्वी के समान सभी स्पर्शों को सहने वाले, समुद्र के समान गम्भीर, सोने के समान (कर्म) मल से रहित तथा प्रज्वलित अग्नि के समान तेज से देदीप्यमान
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