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द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान
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वास्तव में वीतराग छद्मस्थ और वीतरागी आत्मा के लिए सयोगावस्था तक यही क्रियास्थान होता है।
आत्मा का अपने शुद्ध स्वरूप में सदा के लिए प्रतिष्ठित हो जाना आत्मलीनता, मुक्ति या निर्वाण कहलाता है। यह अवस्था जीव को कभी प्राप्त नहीं हुई, क्योंकि वह अनादिकाल से दूसरे स्वरूप में स्थित होता चला आ रहा है। यही कारण है कि इसे कभी आत्मिक सुख की प्राप्ति नहीं हुई। जब जीव को शुभकर्मोदय से यह जिज्ञासा पैदा होती है कि सच्चा आत्मिक सुख कैसा होता है ? उसे कैसे प्राप्त कर सकूँगा ? अब तो मुझे सच्चे आत्मसुख की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना है, तब वह सांसारिक सुखों में आसक्त न होकर, बल्कि उनका त्याग करके शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है। उसकी वैषयिक सुखों से विरक्ति हो जाती है । तब उत्तमोत्तम शब्दादि विषय उसे प्रलोभित नहीं कर पाते । गृहवास तो उसे पाशबन्धन के समान प्रतीत होता है । वह व्यक्ति फिर माता-पिता, भाई-बहन आदि सम्बन्धियों तथा धन-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद आदि का ममत्व छोड़कर मुनिदीक्षा ग्रहण कर लेता है। तत्पश्चात् शास्त्रानुसार अप्रमत्त होकर साधु-धर्म का पालन करता हुआ, जीवन-मरण से निःस्पृह होकर अपना संयमी-जीवन यापन करता है। वह आस्रवों से तथा इन्द्रियविषयों एवं कषायों से निवृत्त होकर पापकर्म से आत्मा की रक्षा करता है। वह चलते-फिरते, उठते-बैठते, सोते-जागते सदैव जीवों की विराधना का ध्यान रखता हुआ प्रवृत्ति करता है। वह बिना उपयोग के अपने नेत्र के पलकों को झपकाना भी बुरा समझता है। वह अपने साधनों और उपकरणों को उठाते एवं रखते समय तथा लघुनीति एवं बड़ी नीति तथा कफ और नाक के मल का विसर्जन करते समय जीवों की विराधना का ध्यान रखता हुआ यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करता है। वह अपने मन को बुरे विचारों में नहीं जाने देता, वाणी पर नियन्त्रण रखता हुआ वह सावद्यभाषा का उच्चारण कभी नहीं करता और न ही शरीर को किसी बुरी प्रवृत्ति में जाने देता है । वह नौ गुप्तियों सहित ब्रह्मचर्य का पालन करता है । सदैव मन-वचन-काया से पापक्रियाओं से वह बचता रहता है । इस तरह यद्यपि वह साधक सब ओर से पापक्रियाओं से बचा रह सकता है, तथापि ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें गुणस्थान की प्राप्ति के दौरान तेरहवीं ऐर्यापथिकी क्रिया से बच नहीं सकता। यह क्रिया इतनी सूक्ष्म है कि धीरे से पलक गिराने पर भी यह लग जाती है। वीतराग भगवान् को भी सयोगावस्था तक इस क्रिया का बन्ध होता है। केवलज्ञानी पुरुष सयोगावस्था में निश्चल होकर रहें, यह सम्भव नहीं है, क्योंकि मन-वचन-काया के योग जब तक विद्यमान हैं, तब तक जीव सर्वथा निश्चल नहीं हो सकता।
वास्तव में ऐपिथिकी क्रिया इतनी सूक्ष्म है कि प्रथम समय में इसका बन्ध
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