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सूत्रकृतांग सूत्र
जो मनगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति से युक्त है (गुत्तिवियस्स) जो अपनी इन्द्रियों को गुप्त अर्थात् वश में रखता है, (गुत्तबंभयारिस्स) जो ब्रह्मचर्य का पालन करता है। (आउत्तं गच्छमाणस्स आउत्तं चिट्ठमाणस्स आउत्तं णिसीयमाणस्स) जो उपयोग (यतना) सहित चलता है, उपयोगपूर्वक खड़ा होता है, उपयोगपूर्वक बैठता है, (आउत्तं तुयट्टमाणस्स आउत्तं भुजमाणस्स आउत्तं भासमाणस्स आउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुछणं गिण्हमाणस्स वा णिक्खिवमाणस्स वा जाव चक्खुपम्हणिवायमवि) जो साधक उपयोग के सहित करवट बदलता है, यतनापूर्वक भोजन करता है, भाषण करता है, उपयोगपूर्वक वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद-प्रोंछन को ग्रहण करता हैं, तथा जो उपयोग सहित इन वस्तुओं को रखता है, यहाँ तक कि आँखों की पलकें भी उपयोगपूर्वक झपकाता है। (अस्थि विमाया सुहुमा किरिया ईरियावहिया नाम कज्जइ) वह साधु विविध मात्रा (प्रकार) वाली सूक्ष्म ऐर्यापथिकी क्रिया को प्राप्त कर लेता है। (सा पढमसमए बद्धा पुट्ठा) उस ऐर्यापथिकी क्रिया का प्रथम समय में बन्ध और स्पर्श होता है, (बितीयसमये वेइया) दूसरे समय में उसका वेदन (अनुभव) होता है, (तइयसमए णिज्जिण्णा) और तीसरे समय में उसकी निर्जरा होती है। (सा बद्धा पुट्ठा उदोरिया वेइया णिज्जिण्णा सेयकाले अकम्मे यावि भवइ) वह ईर्यापथिकी क्रिया प्रथम समय में बन्ध और स्पर्श को प्राप्त करती है तथा दूसरे समय में वेदन (अनुभव) का विषय होती है, तृतीय समय में उसकी निर्जरा होती है और चौथे समय में अकर्मता को प्राप्त होती है, यानी कर्मरहित हो जाती है (एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जति आहिज्जइ) इस प्रकार वीतराग पुरुष को ऐर्यापथिकी क्रिया का बन्ध होता है । (तेरसमे किरियट्ठाणे ईरियावहिएत्ति आहिज्जइ) यह तेरहवाँ क्रियास्थान ऐर्यापथिक कहलाता है। (से बेमि जे य अतीता जे य पडुपन्ना जे य आगमिस्सा अरिहंता भगवंता सव्वे ते एयाई चेव तेरस किरियट्ठाणाई भासिसु वा, भासेंति वा, भासिस्संति वा, पन्नविसु वा, पन्नविति वा, पन्नविस्संति वा) श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं-पूर्व काल में जितने तीर्थंकर हुए हैं, वर्तमान समय में जितने तीर्थंकर विद्यमान हैं, तथा भविष्य में जितने भी तीर्थंकर होंगे, सभी ने इन तेरह क्रियास्थानों का प्ररूपण किया है, तथा करते हैं और करेंगे। (एवं चेव तेरसमं किरियट्ठाणं सेविसु वा सेवंति वा सेविस्संति वा) भूतकालीन तीर्थंकरों ने इसी तेरहवें क्रियास्थान का सेवन किया है और वर्तमान तीर्थंकर इसी का सेवन करते हैं तथा भविष्य के तीर्थंकर भी इसी का सेवन करेंगे।
व्याख्या
तेरहवां क्रियास्थान : ऐपिथिक
. इस सूत्र में ऐपिथिक नामक तेरहवें क्रियास्थान का स्वरूप बताया गया है।
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